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णायकुमारचरिउ के दार्शनिक मतों की समीर्मा
१५५ कार्य बिल्कुल नहीं होता । तब उस पहले कार्य की वस्तु का (कारणका) अस्तित्व समाप्त समझना चाहिए । अतः एक वस्तु (कारण) से एक क्षण में एक ही कार्य हो सकता है।' - प्रस्तुत प्रतीत्यसमुत्पाद की समीक्षा करते हुए पुष्पदंत कहते हैं कि-'यदि क्षणविनाशी दार्थों में कारण-कार्यरूप धारा प्रवाह, जैसे-गाय ( कारण ) से दूध ( कार्य ) एवं दीपक कारण) से अंजन ( कार्य ) की प्राप्ति माना जाये तो गौ एवं दीपक ( कारण) के विनष्ट हो जाने पर दुग्ध एवं अंजन ( कार्य ) की प्राप्ति कैसे हो सकती है ? इसी प्रकार यदि क्षणिकवाद 'Momenterism) सिद्धान्त के अनुसार कहा जाये कि क्षण-क्षण में अन्य जीव उत्पन्न होते रहते हैं, तो प्रश्न उठता है कि जो जीव घर से बाहर जाता है, वही घर कैसे लौटता है ? जो वस्तु एक ने रखी उसे दूसरा नहीं जान सकता ।। । महापुराण में राजा महाबल के एक सम्भिन्नमति नामक मंत्री द्वारा क्षणिकवाद का समर्थन किया गया है। किन्तु मंत्री स्वयंबुद्ध ने उसके क्षणिकवाद को खण्डित करते हुए कहा है कि --"यदि जगत् को क्षणभंगुर माना जाये तो किसी व्यक्ति द्वारा रखी गई वस्तु प्राप्त न होकर अन्य व्यक्ति को प्राप्त होनी चाहिए। इसी प्रकार द्रव्य को क्षणस्थायी मानने से वासना (जिसके द्वारा पूर्व रखी गई वस्तु का स्मरण होता है ) का भी अस्तित्व नहीं रह जाता।
सांख्य दर्शन को समीक्षा-सांख्य दर्शन की मान्यतानुसार इस सृष्टि का निर्माण पुरुष आत्मा) और प्रकृति (समस्तपदार्थ) के सहयोग से हुआ है। सृष्टि विकास में सहयोगी सांख्यपत के २५ तत्त्वों के नाम कवि ने प्रस्तुत ग्रन्थ में गिनाए हैं। सांख्य दर्शन प्रकृति को जड़, सक्रिय, एक तथा त्रिगुणात्मक (सत्व, रज व तमोगुणों से युक्त) एवं पुरुष (आत्मा) को चेतन, नष्क्रिय, अनेक तथा त्रिगुणातीत मानता है। निष्क्रिय पुरुष अथवा जड़ प्रकृति अकेले, सृष्टि का 'नर्माण नहीं कर सकते । इन दोनों के संयोग से ही इस सृष्टि का निर्माण सम्भव है। अन्धे एवं लंगड़े के दृष्टान्तानुसार निष्क्रिय पुरुष एवं सक्रिय प्रकृति सृष्टि निर्माण में परस्पर सहयोग करते हैं। किन्तु यह बात कवि को उचित प्रतीत नहीं होती, इसीलिये वह कहता है किक्रयारहित निर्मल एवं शुद्ध पुरुष, प्रकृति के बन्धन में कैसे पड़ सकता है ? क्रिया के बिना मन, वचन और काय का क्या स्वरूप होगा ? बिना क्रिया के जीव ( पुरुष ) पाप से कैसे बंधेगा? और उससे कैसे मुक्त होगा? यह सब विरोधी प्रलाप किस काम का? पांचभूत, पांच गुण, रांच इन्द्रियाँ तथा पांच तन्मात्राएँ एवं मन, अहंकार और बुद्धि इनका प्रसार करने के लिये पुरुष प्रकृति से कैसे संयोग कर बैठा ? ६
सांख्य दर्शन के सृष्टि विकास के सिद्धान्त का मनन करने से स्पष्ट प्रतीत होता है कि जब प्रकृति जड़ है तो वह सक्रिय कैसे हो सकती है ? तथा पुरुष (आत्मा) चैतन्ययुक्त होते १. रामनाथ शर्मा--भारतीय दर्शन के मूल तत्त्व, पृ० १५३ २. णायकुमारचरिउ-९।५।८-११ ३. महापुराण-२०।१९।८-१० ४. महापुराण-२०१२०१४-५ ५. भूयइ पच पंच गुणइ, पंचिन्दियइ पंच तन्मत्तउ । मणुहंकारबुद्धिपसरु कहीं पयईए पुरिसु संजुत्तउ ।
-णायकुमारचरिउ'-९।१०।१२-१३ ६. णायकुमारचरिउ-९।१०।९-१३
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