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तर्प
૧૪૧ है ।' तपस्वी के सिर से सधूम अग्नि निकलती है, जिससे पृथ्वी क्षुब्ध हो जाती है । इसके आधार पर कह सकते हैं कि प्राचीन काल से ही समाज में तप के प्रति अत्यन्त आदर था ।
तप की दो धाराएँ - मुंडकोपनिषद् में ज्ञान को तप कहा है । शंकराचार्य स्पष्ट कहते हैं कि सर्वज्ञ रूप ज्ञान ही तप है, तप आया सरूपस नहीं है । इसके आधार पर ऐसा अनुमान किया जा सकता है कि वैदिक युग में तप की दो धाराएँ अस्तित्व में आ चुकी थीं - ( १ ) शरीर कष्टप्रद तप और (२) ज्ञान रूप तप । प्रथम धारा मुख्यतः शरीरकेन्द्री है और दूसरी धारा मनःकेन्द्री एवं आत्मकेन्द्री है । प्रथम धारा में परम्परया मन का आत्मा से सम्बन्ध जुड़ता है, जबकि दूसरी धारा मन एवं आत्मा को सीधा स्पर्श करती है । इन दो धाराओं में से प्रथम धारा को अधिक प्राचीन मानना पड़ेगा, क्योंकि ( १ ) तपस् शब्द का मूल / तप् धातु है; (२) उपनिषद्, गीता, जैन और बौद्ध परम्परा प्रथम धारा में सुधार लाने का प्रयास करती है, (३) फिर भी प्रथम धारा आज तक अक्षुण्ण चलती आ रही है ।
१. शरीर कष्टप्रद तप- रामायण, महाभारत, पुराण एवं काव्य में इस धारा का निरूपण दूसरी धारा से अधिक मात्रा में पाया जाता है, जैसे-
रामायण के अनुसार विश्वामित्र ने ब्रह्मर्षिपद की प्राप्ति के लिये हजारों वर्ष तक फल मूल का ही भोजन करके उग्र तपस्या की थी । मांडकण मुनि ने जल में बैठकर वायु का ही भोजन (प्राणायाम) किया था । सप्तजन ऋषि अपना सर नीचा रखते हुए हर सातवीं रात्रि को वायु का भोजन ( कुंभक प्राणायाम) करते थे । शूद्रक ने अधोमुख लटक कर सरोवर में तप किया था । " कुंभकर्ण मनोनिग्रह करके ग्रीष्म में पंचाग्नितप, वर्षा में शिलानिवास और शीत में जलवास करता था । विभीषण सूर्य की दिशा में, हाथ ऊँचा रखते हुए एक पैर पर खड़ा रहकर स्वाध्याय करता था और रावण दश हजार वर्ष तक निराहार रहा था । "
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महाभारत में शिलोंछावृत्ति, जलाहार, वायुभोजन, पंचाग्नितप, एकपाद स्थिति, शीर्णपर्ण भोजन, ऊर्ध्वबाहु, पादांगुष्ठाग्रस्थिति आदि ० तपों का निरूपण है । त्रिरात्रि को आहार, पन्द्रह दिनान्ते आहार आदि" तपों का असर जैन अट्ठम उपवास आदि पर देखा जा
१. भागवत ३-१२-१८; १९
२. भागवत ७-३-२; ४
३. यः सर्वज्ञः सर्वविद् यस्य ज्ञानमयं तपः । मु० १ १ ९; ज्ञानविकारमेव सार्वज्ञ लक्षणं तपो नायास
लक्षणं······मु ं०–शांकरभाष्य १-१ ९ पृ० २२
४. रा० बालकांड ५७-३
५. वायुभक्षो जलाशयः - रा० अरण्यकांड ११-१२.
६. रा० किष्किंधाकांड १३-१८; १९.
७. रा० उत्तरकांड ७५-१४
८. वही १० - ३ से १०
९. म० आदिपर्व ८६ - १४ से १७
१०. म० वनपर्व १०६-११ ११. वही
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