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तप
प्रा० डॉ० एच० यु० पण्डया तपस् शब्द तप धातु से निष्पन्न हुआ है। यह धातु दाह [ ग. १०]; संताप [ग.१ और ऐश्वर्य [ ग.४ ] परक अर्थों में है। ऋग्वेद में यह धातु तीनों अर्थों में प्रयुक्त हुई है, इन में से दाह' और सन्ताप* अर्थ सायण ने स्पष्ट रूप से बताए हैं किन्तु ऐश्वर्य अर्थ स्पष्ट रूप से नहीं बताया है, [फिर भी तपोजाँ न्) ऋषीन्... । या च गाः अङ्गिरसः तपसा चक्रुः और ऋतं सत्यं चाभीद्धात् तपसोऽध्यजायत" आदि में ऐश्वर्य परक अर्थ देखा जा सकता है।
इसके अलावा यह धातु ऋग्वेद में पीड़ा, विनाश', तापप्रद', संस्कारक (विशुद्धि), प्रकाशक° और गरम करना आदि विभिन्न अर्थों में भी है। ये सभी अर्थ तपश्चर्या के साथ जुड़े हुए हैं।
इस धातु से निष्पन्न हुए तपस्. तपस्वान्१२, तपुः१३, तपुषि'४, तपुष्१५, तपिष्ठ",
पी. वी. रिसर्च इन्स्टीट्यूट के उपक्रम में फर्स्ट ऑल इन्डिया कोन्फरेन्स ऑफ प्राकृत एण्ड जैन स्टडीज, दि० २-५ जनवरी १९८८ में पढ़ा गया पेपर । १. तप-दह...६-५-४, ६-२२-८ २. तपः सन्ताप: ७-८२-७ ३. ऋग्वेद १०-१५४-५ ४. तपसा --पशुप्राप्तिसाधनेन चित्रयागादि लक्षणेन-सायण १०-१६९-२ ५. ब्रह्मणा पुरा सृष्टयर्थं कृतात् तपसः --सायण-मानस और वाचिक सत्य तप से उत्पन्न हुए, उससे
रातदिन उत्पन्न हुए.'ऋ १०-१९०-१ ६. तपो-बाधस्व, ३-१८-२ ७. तपः-क्षपय ३-१८-२ ८. तपः--तपसा-तापनेन, १०-१०९-१; तपस्व-तप्तं कुरु १०-१६-४ ९. तपतु-संस्करोतु १०-१६-४ १०. तपतु-प्रदीप्यताम् (सूर्यः) ८-१८-९ ११. तपस्व-तप्तं कुरु १०-१६-४ १२. ऋ० ६-५-४ १३. तपुः तप्यमानः-७-१०४-२ १४. तापयति अनेन अन्यम् १-४२-४, १५. तापक ८-२३-१४ १६. तापयिता ३-३०-१६, ७-५९-८; १०-८९-१२;
तप्यमान १०-८७-२०
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