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प्री० डॉ० एच० यु० पण्डयाँ तपनी', तपन, आदि शब्द भी ऋग्वेद में तेजस्वी, तापक और तप्यमान अर्थ में प्रयुक्त
ऋग्वेद में तपस् शब्द तेज, उष्णप्रद, यज्ञादि साधन, तपश्चर्या (चान्द्रायणादिव्रत), व्रत आदि विभिन्न अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। इसके आधार पर ऐसा अनुमान किया जा सकता है कि वैदिक युग में तप के दो स्वरूप थे-१. यज्ञरूप तप और २. चान्द्रायणादिव्रत रूप तप ।
- तप के प्रति श्रद्धा-रामायण, महाभारत, भागवत, बुद्धचरित आदि ग्रन्थों में तप के प्रति आदर की अभिव्यक्ति की गई है जैसे-रामायण में तप को उत्तम और अन्य सुखों को व्यर्थ कहा है। इतना ही नहीं तप रूप धर्म को ही चार युगों का व्यावर्तक लक्षण माना है, जैसे कि सत्ययुग में केवल ब्राह्मण, त्रेता में ब्राह्मण एवं क्षत्रिय, द्वापर में उन दोनों के उपरान्त वैश्य तप करते थे, और कलियुग में उन तीनों के उपरान्त शूद्र भी तप करेंगे।
महाभारत आदि में कहा गया है कि ब्रह्मादि देव, देवर्षि, ब्रह्मर्षि एवं राजर्षियों ने कठोर तपस्या करके इष्टसिद्धि प्राप्त की थी। तप पवित्रकर्ता है और वह भ उत्पन्न हुआ है।'' वह भगवान् का हृदय एवं आत्मा है, तपोबल से वे सृष्टि की उत्पत्ति, पालन और संहार करते हैं।' तप से भगवद् प्रीति१२, बल१४ और सिद्धियाँ १५ मिलती हैं। स्वर्ग१६ और वैराग' आदि उत्तम लोक में गति होती है इतना ही नहीं ईश्वर प्राप्ति भी होती
१. तापकारिणी २-२३-१४ २. सन्तापक: २-२३-४; १०-३४-७ ३. ६-५-४ ४. १०-१०९-१ ५. तपसा-यागादिरूपेण साधनेन १०-१५४-२; १०-१८३-१ ६. तपसा--कृच्छ्रचान्द्रायणादिना युक्ताः सन्त: १०-१५४-२, तपश्चरणाय १०-१०९-४ ७. तपसः-दीक्षारूपात् व्रतात् १०-१८३-१ ८. उत्तरकांड ८४-९ ९. उत्तरकाण्ड ७४-१० से २७ १०. महाभारत वनपर्व २१३-२८ ११. भगवद्गीता १०-५ १२. भागवत २-९-२२; २३ तथा ६-४-४६ १३. वही ३-९-४१ १४. वही ३-१०-६ १५. वही ९-६-३९ से ४८ १६. ऋ० १०-१५४-२; १०-१६७-१; बुद्धचरित ७-२० १७. उत्तररामचरित २-१२ पृ. ४८
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