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विजयकुमार .. (३) वन्दना-रत्नत्रयसे सहित आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक और स्थविर मुनियों के
गुण-अतिशय को जानकर श्रद्धापूर्वक अभ्युत्थान और प्रयोग के भेद से
दो प्रकार की विनय में प्रवृत्ति को वन्दना कहते हैं । (४) प्रतिक्रमण-प्रमादवश शुभयोग से च्युत होकर अशुभ योग को प्राप्त करने के बाद
पुनः शुभयोग को प्राप्त करना प्रतिक्रमण है। (५) कायोत्सर्ग-ध्यान के लिए शरीर की निश्चलता को कायोत्सर्ग कहते हैं। (६) प्रत्याख्यान-आगामी काल में मैं यह काम नहीं करूँगा, इस प्रकार के संकल्प को
प्रत्याख्यान कहते हैं। अतः उपर्युक्त छत्तीस प्रकार के गुणों से युक्त आचार्य ही सच्चे गुरु माने गये हैं।
इसी प्रकार महामुनि उपाध्याय अमरमुनि ने सामायिक सूत्र में आचार्य के निम्नलिखित छत्तीस गुण बताये हैं - "जो पाँच इन्द्रियों के वैषयिक चांचल्य को रोकने वाला, ब्रह्मचर्य व्रत की नवविध गुप्तियों को धारण करने वाला, क्रोधादि चार कषायों से मुक्त, अहिंसादि पांच महाव्रतों से युक्त, पाँच आचार का पालन करने में समर्थ, पाँच समिति और तीन गुप्तियों को धारण करने वाला श्रेष्ठ साधु ही गुरु है।"१ गुरु के प्रकार :.. जैनागमों में आचार्य के कई प्रकार बताये गये हैं। राजप्रग्नीयसूत्र में तीन प्रकार के आचार्यों के वर्णन मिलते हैं --
१. कलाचार्य, २ शिल्पाचार्य और ३. धर्माचार्य । जो बहत्तर कलाओं की शिक्षा देते हैं, वे कलाचार्य, जो विज्ञान आदि का ज्ञान कराते हैं, वे शिल्पाचार्य तथा जो धर्म का प्रतिबोध देने वाले हैं, वे धर्माचार्य कहलाते हैं । परन्तु स्था. नांग सूत्र में ज्ञान एवं कार्य की अपेक्षा से आचार्य चार प्रकार के बताये गये हैं(१) उद्देशनाचार्य-जो आचार्य शिष्यों को पढ़ने का आदेश देते हैं, किन्तु वाचना देने
वाले नहीं होते, वे उद्देशनाचार्य कहलाते हैं।। (२) वाचनाचार्य-जो आचार्य वाचना देने वाले होते हैं किन्तु अध्ययन-अध्यापन का
— आदेश देने वाले नहीं होते हैं, वे वाचनाचार्य कहलाते हैं । (३) उद्देशनाचार्य-वाचनाचार्य-जो आचार्य आदेश भी देते हैं और वाचना भी
देते हैं, वे उद्देशनाचार्य-वाचनाचार्य हैं। (४) न उद्देशनाचार्य न वाचनाचार्य-जो आचार्य न आदेश ही देते हैं और न
वाचना ही देते हैं, किन्तु धर्म का प्रतिबोध देने वाले होते हैं। १. सामायिकसूत्र, ३/१/२ २. राजप्रश्नीयसूत्र-१५६/३४२ ३. स्थानांगसूत्र-४/३/४२३
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