________________
जैन एवं काण्टीय दर्शनों की समन्वयवादी पद्धतियाँ
११९ इन तर्कों के आधार पर अद्वैत वेदान्त सामान्य को प्रतिष्ठित करता है और विशेष की सत्ता को खण्डित करता है। न्याय-वैशेषिक
ये दर्शन मानते हैं कि सामान्य सत्य है और विशेष भी। किन्तु दोनों ही अलग-अलग होते हैं, निरपेक्ष होते हैं। दोनों में स्वभावतः कोई सम्बन्ध नहीं होता। यदि ये सम्बन्धित होते हैं तो समवाय के कारण, जो कि एक नित्य सम्बन्ध होता है। जैनदर्शन का समन्वयवाद
यह दर्शन उपरोक्त सभी दर्शनों के मतभेद को मिटाने का प्रयास करता है । पहले तो यह इन विचारों को एकांगी घोषित करता है। फिर नय की दृष्टि से इन्हें विभिन्न नयों का समर्थक मानता है । जैन दर्शन के अनुसार जो लोग सामान्य को ही सत् मानते हैं, वे संग्रहनय का समर्थन करते हैं। जो मत विशेष को महत्त्व देते हैं, वे पर्यायार्थिक नय के पक्षधर होते हैं तथा सामान्य-विशेष दोनों की ही सत्ताओं को स्वीकार करते हैं, वे नैगम नय को प्रधानता देते हैं। इस तरह इनके मत एकपक्षीय हैं। दरअसल सामान्य-विशेष दोनों ही सत्य होते हैं परन्तु अलग-अलग नहीं होते । दोनों निरपेक्ष नहीं बल्कि सापेक्ष होते हैं।
जैन दर्शन अपनी तत्त्वमीमांसा में यह मानता है कि वस्तु के अनन्त धर्म होते हैं (अनन्तधर्मकं वस्तु)। उन धर्मों में से कुछ तो स्थायी होते हैं और कुछ अरथायी। स्थायी रहने वाले धर्म को गुण तथा अस्थायी धर्म को पर्याय कहते हैं। गुण की दृष्टि से वस्तु सामान्य होती है तथा पर्याय की दृष्टि से विशेष । अतः सामान्य और विशेष दोनों द्रव्य में साथ ही रहते हैं और एक दूसरे के सापेक्ष होते है, निरपेक्ष नहीं होते।
(क) जब कोई व्यक्ति मनुष्यत्व' कहता है तो उसके सामने मनुष्य के सभी लक्षण आ जाते हैं । साथ ही उसे मनुष्य का गाय, भैंस, हाथी आदि से भिन्नता का भी बोध हो जाता है । तात्पर्य यह है कि सामान्य के साथ विशेष का भी बोध हो जाता है।
(ख) यदि कोई व्यक्ति कहता है- 'राम' तो यहाँ पर एक विशेष व्यक्ति का बोध होता है किन्तु राम कहने के साथ ही उसमें जो मनुष्यत्व है उसका भी बोध हो जाता है । अर्थात् विशेष के साथ ही सामान्य का भी बोध हो जाता है।
(ग) सामान्य और विशेष बिल्कुल भिन्न नहीं होते। सामान्य का विशेष के साथ जिस हद तक तादात्म्य होता है, उस हद तक दोनों अभिन्न होते हैं और जिस सीमा तक दोनों में तादात्म्य नहीं होता है, उस सीमा तक दोनों भिन्न होते हैं।
इस प्रकार सामान्य और विशेष दोनों ही सत्य होते हैं। दोनों एक साथ होते हैं। दोनों एक दूसरे पर निर्भर होते हैं, क्योंकि सामान्य के बिना विशेष का और विशेष के बिना सामान्य का बोध नहीं होता। जिस तरह कोई वस्तु सामान्य और विशेष दोनों ही रूपों में देखी जा सकती है उसी तरह वह नित्य और अनित्य भी समझी जा सकती है। गुण की दृष्टि से किसी वस्तु में नित्यता होती है और पर्यायों की दृष्टि से अनित्यता। इसी आधार पर कुछ उदाहरण प्रस्तुत
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org