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रमेशचन्द जैन - सुख और दुःख को समान समझकर तथा लाभ-हानि और जय-पराजय को समान समझकर तू युद्ध के लिए चेष्टा कर, इस तरह युद्ध करता हुआ तू पाप को प्राप्त नहीं होगा।
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनंजय ।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥ २/४८ हे धनञ्जय ! योग में स्थित होकर आसक्ति रहित होकर कर्म कर। सिद्धि और असिद्धि में सम होकर कार्य करना समत्व योग कहा जाता है।
. समत्व योग को धारण करने वाले को ही गीता में स्थितप्रज्ञ तथा जैन दर्शन में सम्यग्दृष्टि कहा जाता है। जब मनुष्य सब मनोगत कामनाओं को छोड़कर आत्मा में स्वयं सन्तुष्ट होता है, तब स्थितप्रज्ञ कहा जाता है। तात्पर्य यह है कि अपने अन्तरात्मस्वरूप में ही किसी बाह्य लाभ की अपेक्षा न रखकर अपने आप सन्तुष्ट रहने वाला अर्थात् परमार्थदर्शन रूप अमृत रस-लाभ से तृप्त, अन्य सब अनात्म पदार्थों से अलंबुद्धि वाला तृष्णारहित पुरुष स्थितप्रज्ञ कहलाता है। अर्थात् जिसकी बुद्धि आत्म-अनात्म के विवेक से उत्पन्न हुई स्थित हो गयी है, वह स्थितप्रज्ञ यानी ज्ञानी कहा जाता है।२ छहढाला में भी कहा गया है
आतम अनात्म के ज्ञानहीन जे जे करनी तन करत छीन ।
आत्मा और अनात्मा के ज्ञान बिना जो-जो क्रियायें की जाती हैं, वे सब शरीर और इन्द्रियों को क्षीण करने वाली हैं।
पुत्र, धन और लोभ की समस्त तृष्णाओं को त्याग देने वाला संन्यासी ही आत्माराम, आत्मक्रीड और स्थितप्रज्ञ है।३ छहढाला में कहा गया है
सुत दारा होय न सीरी सब स्वारथ के हैं भीरी । जल-पय ज्यों जिय तन मेला पै भिन्न २ नहीं भेला ।
तौ प्रगट जुदे धन धामा क्यों ह इक मिल सुत रामा ॥ जो दुःखों में उद्विग्न नहीं होता और सुखों में जिसकी स्पृहा नहीं है एवं राग, भय तथा क्रोध जिसके नष्ट हो गए हैं, वह व्यक्ति स्थितधी कहा जाता है। रागी के विषय में आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं
रत्तो बंधदि कम्मं मुंचदि जीवो विरागसंपण्णो।
एसो जिणोवदेसो तम्हा कम्मेसु मा रज्ज ॥ समयसार-१५० रागी जीव कर्म को बाँधता है और वैराग्य को प्राप्त हुआ कर्म से छूटता है। यह जिनेन्द्र भगवान् का उपदेश है, इसलिए कर्मों में राग मत करो। १. प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् ।
आत्मन्येवात्मना तुष्ट: स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥ २१५५ २. गीता-शाङ्करभाष्य २०५५ ३. गीता-शाङ्करभाष्य २१५५ ४. दुःखेष्वनुद्विग्ना सुखेषु विगतस्पृहः ।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीमुनिरुच्यते ॥ गीता २०५६
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