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चित्रं-अद्वैतवाद का तार्किक विश्लेषण वे सर्वथा अभिन्न हेतु से उत्पन्न नहीं होते हैं, जैसे जल, अग्नि आदि। ज्ञान और सुख आदि में भी विभिन्न स्वरूप पाया जाता है । सुख आनन्द आदि रूप होता है और ज्ञान प्रमेय के अनुभव स्वरूप होता है। इसलिए वे भी एक अभिन्न कारण से उत्पन्न नहीं हैं। अतः विभिन्न स्वरूप वाले पदार्थों का अभिन्न उपादान कारण मानने पर सभी चीजें सभी की उपादान कारण हो जायेंगी । अतः सिद्ध है कि ज्ञान सुख आदि रूप नहीं है।
अब यदि ज्ञान अभिन्न हेतु से उत्पन्न होने के कारण इस हेतु को कथंचित् माना जाय तो रूप, आलोक आदि के द्वारा हेतु विपक्ष में चले जाने से अनैकान्तिक नामक हेत्वाभास से दूषित हो जाता है । क्योंकि जिस प्रकार रूप आलोक आदि से ज्ञान की उत्पत्ति होती है, उसी प्रकार रूप-क्षणान्तर एवं आलोक-क्षणान्तर की भी उत्पत्ति होती है। संक्षेप में रूप-ज्ञान की तरह रूप को भी उत्पन्न करता है । अतः सुख आदि ज्ञान रूप नहीं हैं यह सिद्ध हुआ।
एक बात यह भी है कि आपने सुख आदि में 'ज्ञान से अभिन्न हेतु से उत्पन्न होने के कारण' ऐसा जो हेतु माना है वह किस अपेक्षा से कहा है उपादान कारण की अपेक्षा से अथवा सहकारी कारण की अपेक्षा से? उपादान कारण की अपेक्षा मानने पर यह भी विचारणीय है कि इनका उपादान क्या है, आत्म द्रव्य अथवा ज्ञानक्षण ? आत्म द्रव्य को बौद्धों ने माना ही नहीं है इसलिए वह उपादान हो नहीं सकता है । आत्म द्रव्य मानने पर प्रश्न होता है कि सुखादि में उपादान की अपेक्षा से अभेद सिद्ध करते हैं अथवा स्वरूप की अपेक्षा से ? यदि चित्र-अद्वैतवादी 'सुखादि में उपादान की अपेक्षा अभेद सिद्ध करते हैं'- इस विकल्प को स्वीकार करते हैं तो इसमें सिद्ध-साधन नामक दोष आता है, क्योंकि जैनदर्शन ने भी चेतन द्रव्य की अपेक्षा सुख आदि में अभेद माना है और सुखज्ञान आदि प्रतिनियत (पूर्वनिर्धारित) पर्याय की अपेक्षा से इनमें परस्पर भेद भी माना है। अब यदि यह माना जाय कि 'स्वरूप की अपेक्षा सुख आदि में अभेद है' तो घट. घटी, शराव आदि के समान अनैकान्तिक दोष होता है। क्योंकि अभिन्न उपादान वाले घट, घटी आदि में स्वरूप से अभेद नहीं है।'
_अब यदि ज्ञानक्षण को उपादान मानकर 'विज्ञान से अभिन्न हेतुजत्व' सिद्ध करना चाहते हैं तो यह भी असिद्ध है। क्योंकि आत्मद्रव्य ही सुख आदि में उपादान होता है। पर्यायों का दूसरी पर्यायों की उत्पत्ति में उपादानत्व कभी भी नहीं देखा गया है। अन्तरंग अथवा बाह्य द्रव्य में ही उपादानत्व बनता है। कहा भी है "जो द्रव्य पूर्व और उत्तर पर्यायों में तीनों कालों में वर्तमान रहता है वही द्रव्य माना गया है।" आत्मा पूर्वोत्तर पर्यायों और तीनों कालों में रहने के कारण द्रव्य है।
अब यदि माना जाय कि 'सुखादि में ज्ञान-अभिन्न हेतुजत्व' सहकारी कारण की अपेक्षा से है तो यह भी कथन मात्र है। यहाँ चक्षु आदि के द्वारा अनैकान्तिक दोष का प्रतिपादन होता है। यदि सुख आदि ज्ञान से सर्वथा अभिन्न है तो ज्ञान की तरह सुख आदि को भी अर्थ का
क होना चाहिए, लेकिन ऐसा होता नहीं है। ज्ञान तो स्व-पर प्रकाशक होता है और सुख आदि अपने स्व-प्रकाश में ही नियत (निश्चित) है, ऐसा सभी को अनुभव होता है । अतः विरुद्ध १. न्यायकुमुदचन्द्र, १/५, पृ० १३२
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