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चित्र-अद्वैतवाद का तार्किक विश्लेषण
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को अनेक आकार वाला मानना ठीक नहीं है, क्योंकि परस्पर में विरुद्ध अथवा भिन्न (व्यावृत्त) अनेक आकारों का एक अनंश ज्ञान में रहना ( वृत्ति ) संभव नहीं है। जिनकी परस्पर में भिन्नता होती है, उनकी अनंश एक वस्तु में वृत्ति ( अस्तित्व ) या सत्ता नहीं होती है। जैसे गाय, घोड़े आदि परस्पर में भिन्न हैं, इसलिये उनकी एक वस्तु में सत्ता नहीं होती है। इसी प्रकार नील-पीत आदि आकारों की भी परस्पर विरुद्धता या भिन्नता है इसलिये वे भी एक ज्ञान में नहीं रह सकते हैं।
, प्रभाचन्द्र एवं वादिदेवसूरि यह भी कहते हैं कि एक अनंश ज्ञान का परस्पर विरुद्ध आकारों के साथ तादात्म्य ( अभेद सम्बन्ध ) भी ठीक नहीं है, क्योंकि एक अनंश का परस्पर विरुद्ध आकारों के साथ अभेद सम्बन्ध मानने पर ज्ञान में भी भेद का प्रसंग प्राप्त होगा। उदाहरणार्थ -- जो एक और अनंश है उसका परस्पर विरुद्ध आकारों के साथ तादात्म्य ( अभिन्न ) सम्बन्ध नहीं है जैसे- उत्पन्न क्षण का उत्पत्ति और अनुत्पत्ति से अथवा सत्त्व और विनाश से तादात्म्य सम्बन्ध नहीं होता है। चित्राद्वैतवादियों ने चित्रज्ञान को एक और अनंश माना है। अतः आकारों का ज्ञान के साथ तादाम्य सम्बन्ध मानने पर उनमें भेद मानना भी संभव नहीं हो सकेगा, तब चित्रता कैसे बनेगी।'
यदि चित्र-अद्वैतवादी यह माने कि नील-पीत आदि आकारों की तरह वह ज्ञान भी अनेक है, तो प्रश्न होता है कि वह ज्ञान कथंचित् अनेक हैं। अथवा सर्वथा ?२ चित्रज्ञान को सर्वथा अनेक मानने पर नील आदि आकारों के ज्ञानों में परस्पर में अत्यन्त भेद होने के कारण चित्रता का ज्ञान स्वप्न में भी नहीं होगा। क्योंकि यह नियम है कि जिनमें परस्पर में अत्यन्त भेद होता है, उनमें चित्रता का बोध नहीं होता है; जैसे सन्तानान्तर के विभिन्न ज्ञानों में, आकारों की तरह उनके ज्ञानों में भी परस्पर अत्यन्त भेद है, इसलिए चित्रता संभव नहीं है।
कथंचित् अभेद मानने पर तो ज्ञान की तरह बाह्य अर्थ में भी चित्रस्वभावता मान लेना चाहिए। क्योंकि उसमें भी प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से तरह-तरह के आकारों से तादात्म्य का अनुभव होता है । दुराग्रह के अभिनिवेश से क्या लाभ होगा? बाह्य चित्रता और अन्तःकरण की चित्रता में आक्षेप और समाधान समान है। प्रमेयकमलमार्तण्ड में कहा भी है कि जिस तरह एक ज्ञान में अक्रम से नील, पीत आदि अनेक आकार व्याप्त होकर रहते हैं, उसी प्रकार क्रम से सुख दुःख आदि अनेक आकार भी उसमें व्याप्त होकर रहते हैं, ऐसा मानना चाहिए।"२ अतः नील आदि अनेक अर्थों का व्यवस्थापक प्रमाता (आत्मा) है और वह कथंचित अक्षणिक है ऐसा सिद्ध होता है। अतः प्रमाता और प्रमेय ऐसे दो तत्त्व सिद्ध हो जाने से चित्र-अद्वैत ही तत्त्व है ऐसा सिद्ध नहीं होता। १. तथाहि ज्ञानमेकमनेकारं तद्विपरीतं या ? (क) न्यायकुमुदचन्द्र पृ० १२८
(ख) स्याद्वादरत्नाकर, पृ० १७७ २. (क) न्यायकुमुदचन्द्र पृ० १२९ (ख) स्याद्वादरत्नाकर, पृ० १८७ ३. क्रमेणाप्यनेकसुखद्याकार"दन्तोजलाञ्जलि: । १/५, पृ० ९६ ।
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