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जैन दर्शन में मन
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मन और मस्तिष्क की सापेक्षता - मन और मस्तिष्क में गहरा सम्बन्ध है । इन्द्रियों के द्वारा विषय का ग्रहण होता है, मस्तिष्क उनका संवेदन करता है तथा मन उस पर पर्यालोचन यानि यता - उपादेयता का कार्य करता है । मस्तिष्क मन की प्रवृति का मुख्य साधन अंग है, इसीलिए उसके विकृत हो जाने से मन भी विकृत हो जाता है । फिर भी ये स्वतन्त्र हैं ।'
दर्शन के अनुसार मति-ज्ञान और श्रुत ज्ञान के क्रम इस प्रकार है- व्यञ्जन - ज्ञाता और ज्ञेय सर्व-सामान्य रूप का अवबोध । संशय-वस्तु
मन और इन्द्रियों को सापेक्षता - जैन साधन हैं - इन्द्रियाँ और मन । यहाँ ज्ञान का वस्तु का उचित सन्निधान । दर्शन --वस्तु के स्वरूप के बारे में अनिर्णायक विकल्प । ईहा - वस्तु स्वरूप का परामर्श अर्थात् वस्तु में प्राप्त और अप्राप्त धर्मों का पर्यालोचन । अवाय वस्तु स्वरूप का निर्णय । धारण-- वस्तु स्वरूप का स्थिरीकरण |
इस ज्ञान क्रम में व्यञ्जन तथा दर्शन तक इन्द्रियों की प्रवृत्ति होती है । मन का कार्य अर्थावग्रह से प्रारम्भ होता है । मन सब इन्द्रियों के युगपत् प्रवृत्ति नहीं कस सकता । वह एक काल में एक इन्द्रिय के साथ ही व्यापार कर सकता है । भावमन ज्ञानात्मक चेतना ) उपयोगमय है । वह जिस समय जिस इन्द्रिय के साथ मनोयोग कर जिस वस्तु का उपयोग करता है तब वह तन्मयोपयोग ही हो जाता है । इन्द्रियों के व्यापार की सार्थकता इसी में है कि उसके बाद मन भी अपना कार्य करे । इन्द्रियों के अभाव में मन पंगु हो जाता है । वह उसी विषय पर चिंतन कर सकता है जो कभी न कभी इन्द्रियों से गृहीत हुआ हो । इन्द्रियाँ सिर्फ मूर्त-द्रव्य की वर्तमान पर्याय को ही जानती हैं । मन मूर्त और अमूर्त्त दोनों के त्रैकालिक अनेक रूपों को जानता है, इसलिए मन को सर्वार्थग्राही कहा गया है ।
मन की अप्राप्यकारिता - मन का वस्तु के साथ सीधा सम्बन्ध नहीं होता । की प्राप्यकारिता को मानें तो आग के चिंतन से हम जलने लगेंगे और चंदन के शीतलता का अनुभव करने लगेंगे । अतः मन की अप्राप्यकारिता सिद्ध है ।
मन का स्थान - गोम्मटसार के कर्त्ता के कुछ आचार्य मन का स्थान सम्पूर्ण शरीर को है वहाँ-वहाँ मन है । *
१. सन्मतितर्कप्रकरण, काण्ड - २
२. जैनसिद्धान्तदीपिका २/३३
३. अभिधान राजेन्द्रकोष, भाग – ६, पृ० ७६-८३
४. योगशास्त्र ५ / २ मनोयत्र
नीरवत् १ ।
मन इन्द्रिय है या नहीं जैन दृष्टि के अनुसार मन अनीन्द्रिय है । इसका अर्थ यह है कि मन इन्द्रिय की तरह प्रतिनियत अर्थ को जानने वाला नहीं है । इसलिए इन्द्रिय भी नहीं है । इस विषय में धवलाकार का कथन है कि इन्द्र अर्थात् आत्मा के लिंग को इन्द्रिय कहते हैं । जिस
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यदि मन चिंतन से
अनुसार मन का स्थान हृदय है । पर योग के मानते हैं । उनके अनुसार जहाँ-जहाँ प्राणवायु
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