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बच्छराज दूगड़ कर्म-आत्मा की प्रवृत्ति के द्वारा आकृष्ट तथा उसी के साथ एकरसीभूत बना हुआ पुद्गल कर्म है। कर्म के विचार में नो-कर्म की अपेक्षा रहती है। कर्म विपाक की सहायक सामग्री नो-कर्म है। कर्म विपाक में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, अवस्था, पुद्गल आदि बाहरी परिस्थितियों की अपेक्षा रहती है।
मन क्या है ?--मनन करना मन है अथवा जिसके द्वारा मनन किया जाता है, वह मन है। धवला में कहा गया है कि जो भली प्रकार ( ईहा, अवाय, धारणा, स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, तर्क अनुमान, आगम आदि पूर्वक ) जानता है, उसे संज्ञा या मन कहते हैं । द्रव्यसंग्रह की टीका में कहा गया है कि मन अनेक प्रकार के संकल्प विकल्पों का जाल है। इन सभी परिभाषाओं का संकलनात्मक रूप जैन सिद्धान्त दीपिका में मिलता है, जिसके अनुसार मन, इन्द्रियों के द्वारा गृहीत विषयों में प्रवृत्त होता है। वह शब्द रूप आदि सभी विषयों को जानता है तथा भूत, भविष्य और वर्तमान का संकलनात्मक ज्ञान करता है।
मन के कार्य स्मृति, चिंतन और कल्पना ही मन के कार्य हैं। यह इन्द्रिय ज्ञान का प्रवर्तक है। नन्दीसूत्र में मन के कार्यों का विभाजन इस प्रकार है-"ईहा, अपोह, मार्गणा, गवेषणा, चिन्ता, विमर्श ।' आचार्य सिद्धसेन के अनुसार संशय, प्रतिभा, स्वप्नज्ञान, वितर्क, सुख-दुःख, क्षमा, इच्छादि मन के कार्य हैं।'
मन चेतन या अचेतन—जैन दर्शन के अनुसार मन चेतन द्रव्य और अचेतन द्रव्य के गुण के सम्मिश्रण की स्थिति में ही उत्पन्न होता है। जब आत्मा सर्दथा कर्म मुक्त होती है तो उसमें मन की स्थिति नहीं होती। इसलिए जैन-दृष्टि के अनुसार मन दो प्रकार के होते हैंएक चेतन और दूसरा पौद्गलिक ।
पौद्गलिक मन ज्ञानात्मक मन का सहयोगी होता है। इसके बिना ज्ञानात्मक मन अपना कार्य नहीं कर सकता। उसमें अकेले में ज्ञान-शक्ति नहीं होती दोनों के योग से मानसिक क्रियाएँ होती हैं।
ज्ञानात्मक चेतना ( भावमन ) मस्तिष्क ( पौद्गलिक ) की उपज नहीं हो सकती। मन चैतन्य के विकास का एक स्तर
विकास का एक स्तर है अतः ज्ञानात्मक है पर उसका यह कार्य जिस स्नायु मण्डल, मस्तिष्क और मनोवर्गणा की सहायता से होता है वह पौद्गलिक मन है।
१. जैनसिद्धान्त दीपिका ४/१ २. प्रज्ञापना १७ ३. वही १३ ४. विशेषावश्यकभाष्य गाथा ३५२५ (मणणं व मन्नए वाडणेण)
धवला १/१/१, ४/१५२/३
द्रव्यसंग्रह टीका १२/३०/१ ७. जैनसिद्धान्त दीपिका २/३३ ८. नन्दीसूत्र ३६
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