________________
लेश्या द्वारा व्यक्तित्व रूपान्तरण
मुमुक्षु शांता जैन मनुष्य जीवन का विश्लेषण हम जहाँ से भी शुरू करें, आगम सूक्त की अनुप्रेक्षा के साथ पहला प्रश्न उभरेगा- 'अणेगचित्ते खलु अयं पुरिसे'१ मनुष्य अनेक चित्त वाला है यानि वह बदलता हुआ इन्द्रधनुषी व्यक्तित्व है। विविध स्वभावों से घिरे मनुष्य को किस बिन्दु पर विश्लेषित किया जाये कि वह अच्छा है या बुरा? क्योंकि देश, काल व परिस्थिति के साथ बदलता हुआ मनुष्य कभी ईर्ष्याल, छिद्रान्वेषी, स्वार्थी, हिंसक, प्रवंचक, मिथ्यावृष्टि के रूप में सामने आता है तो कभी विनम्र, गुणग्राही, निःस्वार्थी, अहिंसक, उदार, जितेन्द्रिय और तपस्वी के रूप में। आखिर इस वैविध्य का तत्त्व कहाँ है ? ऐसा कौन सा प्रेरक बिन्दु है जो न चाहते हुए भी व्यक्ति द्वारा बुरे कार्य करवा देता है ? ऐसा कौन सा आधार है जिसके बल पर एक संन्यासी बिना भौतिक सम्पदा के आनन्द के अक्षय स्रोत तक पहुँच जाता है और दूसरा भौतिक सम्पदा से घिरा होकर भी प्रतिक्षण अशान्त, बेचैन, कुण्ठित और दुःखाक्रान्त होकर जीता है।
ऐसे प्रश्नों का समाधान हम व्यवहार के स्तर पर नहीं पा सकते । जैन दर्शन ने चित्त के बदलते भूगोल को सम्यक् जानने के लिये और मनुष्य के बाह्य और आन्तरिक चेतना के स्तर पर घटित होने वाले व्यवहार को समझने के लिये लेश्या का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण प्रस्तुत किया है।
जैन दर्शन में लेश्या का सिद्धान्त बहत महत्त्वपूर्ण है। कर्म शास्त्रीय भाषा में लेश्या हमारे कर्म बन्धन और मुक्ति का कारण है। यद्यपि आत्मा स्फटिक मणि के समान निर्मल
और पारदर्शी है, पर लेश्या द्वारा आत्मा का कर्मों के साथ श्लेष चिपकाव होता है । २ लेश्या द्वारा आत्मा पुण्य और पाप से लिप्त होती है। कषाय द्वारा अनुरंजित योग प्रवृत्ति के द्वारा होने वाले भिन्न-भिन्न परिणामों को जो कृष्ण, नील आदि अनेक रंग वाले पुद्गल विशेष के प्रभाव होते हैं, लेश्या कही जाती है। आगम में लेश्या की परिभाषा की गयी है- “कषायोदयरंजिता योग प्रवृत्तिलेश्या।"४ कर्म बन्धन के दो कारण हैं-कषाय और योग । कषाय होने पर लेश्या में चारों प्रकार के बन्धन होते हैं-प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश। प्रकृति और प्रदश बन्ध योग से होता है और स्थिति तथा अनुभाग बन्ध कषाय से होता है । १. आयारो ३/४२ २. षट्खण्डागम (धवला) ७/२/१/३/७ ३. पंचसंग्रह, प्राकृत १/१४२ ४. सर्वार्थसिद्धि २/६, राजवार्तिक २/६/८ ५. गोम्मटसार जीवकाण्ड ४९०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org