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चित्र-अद्वैतवाद का तार्किक विश्लेषण
८१ है। क्योंकि प्रमाणवार्तिक में कहा गया है कि "जिन पर महती कृपा होती है, वेसुगत के अधीन होते हैं।" इस कथन से स्पष्ट है कि सुगत के सत्ताकाल में सर्वत्र ऐसे प्राणी वर्तमान थे। अन्यथा सुगत की कृपा किस पर होती। इसी प्रकार विनयी शिष्य आदि प्राणियों के अभाव में मोक्षमार्ग का उपदेश देना भी निर्थरक होगा। इसके अलावा एक बात यह भी है कि सुगत का उपदेश सुनकर कोई सुगत की तरह सुगति (निर्वाण ) भी प्राप्त नहीं कर सकेगा, क्योंकि आपके सिद्धान्तानुसार सुगत के समय अन्य किसी की उत्पत्ति नहीं हो सकती है और वह सुगत अंत रहित है।
अब यदि अशक्य पृथक्करण को ज्ञानांतरज्ञान न मान करके सुगत के ज्ञान से उनका अनुभव में आना माना जाय तो यह कथन भी असिद्ध होजायेगा क्योंकि नील-पीत आदि पदार्थ अन्य ज्ञानों से भी जाने जाते हैं ( अनुभव में आते हैं)। यदि नील आदि पदार्थों को ज्ञान रूप माना जाय तो अन्योन्याश्रय नामक दोष आता है। क्योंकि नील आदि पदार्थों में ज्ञानरूपता सिद्ध होने पर ही नील आदि पदार्थों में अन्य ज्ञान का परिहार करके उसी ज्ञान से उनका अनुभव में आना सिद्ध होगा और इस प्रकार अनुभव की सिद्धि होने पर पदार्थों में ज्ञानरूपता की सिद्धि होगी।
अब यदि यह तीसरा विकल्प स्वीकार किया जाय कि भेद नहीं कर सकना अशक्य ही पृथकरण है' तो यह भी असिद्ध है क्योंकि नील आदि पदार्थ बाहर स्थित हैं और उनका ज्ञान अंतरंग में स्थित हैं, इसलिए उनमें पृथक्करण की सिद्धि होती है। इस प्रकार विवेच्यमान एवं पृथकीयमान इन दोनों में विवेचन वा भाव मानना ठीक नहीं है क्योंकि इस प्रकार मानने से समस्त पदार्थों के अपह्नव अर्थात् अभाव के निश्चय से सकल शून्यता सिद्ध हो जायेगी, जो चित्राद्वैतवादियों को मान्य नहीं है ।
चित्रज्ञान की तरह बाह्य पदार्थ भी एक रूप है-एक बात यह भी है कि अनेक से व्याप्त अन्तस्तत्त्व ज्ञान का पृथक्करण न कर सकने से यदि एकत्व आकारों का अविरोधी मानते हो तो अवयवी आदि बाहर के तत्त्वों को भी एकत्व का अविरोधी मानना पड़ेगा, क्योंकि दोनों में समानता है। बुद्धि के द्वारा उसके स्वरूप का विवेचन तो अन्यत्र भी समान है। चित्र ज्ञान में भी नील आदि आकारों का अन्योन्य देश का परिहार करके एक देश में स्थित होना समान है। नील आदि आकारों का एक ही देश मानने पर एक आकार में ही अन्य समस्त आकारों का प्रवेश हो जाने से उनमें विलक्षणता (भेद) का अभाव हो जायगा और ऐसा होने पर चित्रता ( नाना आकार ) का विरोध हो जायगा। यह एक नियम है कि जिसका एक देश होता है अर्थात् जो एक ही आधार में रहते हैं, उनके आकर में विलक्षणता नहीं होती है। जैसे नीलाकार चित्र ज्ञान में नील आदि आकार भी एक देश वाले हैं, इसलिये उनमें भी विलक्षणता नहीं है। उसी प्रकार जहाँ आकारों में अविभिन्नता होती है वहाँ चित्ररूपता नहीं होती है, जैसे एक नील ज्ञान मेंस्वीकृत ( अभिमत) नील आदि आकारों में भी आकारों की अविचित्रता है।'
१. न्याय कुमुदचन्द्र, १/५/पृ० १२८
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