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चित्र-अद्वैतवाद का तार्किक विश्लेषण
चित्रपट आदि को सांश एक वस्तु मानने में दोष :-यदि चित्रपट आदि को निरंश एक वस्तु न मानकर उससे विपरीत सांश वस्तु माना जाय भी तो उसमें, विभिन्न आश्रयों में रहने वाले नील-पीत आदि की तरह, स्वयं चित्रता का अभाव सिद्ध हो जायेगा। इसलिए चित्रता अर्थ का धर्म नहीं है, किन्तु ज्ञान का धर्म है। अपने कारण-कलाप से उत्पन्न विज्ञान (बुद्धि) अनेक आकार युक्त (खचित) ही उत्पन्न होता है और अनुभव में आता है। इसलिए चित्राकार ज्ञान ही एक तत्त्व है। इस प्रकार चित्राद्वैत सिद्ध होता है।
. चित्र-अद्वैतवादी सांख्य दार्शनिकों के इस मत का निराकरण करते हैं कि सुखादि में ज्ञान स्वरूपता का अभाव होने से चित्र प्रतिभास वाला ज्ञान ही एकमात्र तत्त्व कैसे हो सकता है ? अतः चित्राद्वैतवाद सिद्ध नहीं होता है। चित्र-अद्वैतवादी कहते हैं कि सुखादि भी ज्ञान के अभिन्न हेतुओं से उत्पन्न होने के कारण ज्ञान रूप ही है। अतः सुखादि ज्ञानात्मक हैं, ज्ञान के अभिन्न हेतुओं से उत्पन्न होने के कारण ज्ञानान्तर की तरह । इसी बात को प्रमाणवार्तिक में कहा भी है- "तद् रूप पदार्थ तद्रूप हेतुओं से उत्पन्न होते हैं और अतद्रूप पदार्थ अतद्रूप हेतुओं से उत्पन्न होते हैं। अतः विज्ञान (बुद्धि) से अभिन्न हेतुओं से उत्पन्न होने के कारण सुखादि अज्ञान रूप कैसे हो सकते हैं ?
चित्राद्वैतवाद की मीमांसा :-न्याय-वैशेषिक आदि भारतीय दार्शनिकों की तरह जैन दार्शनिक भट्ट अकलंकदेव, आ० विद्यानन्द, वादिराज, प्रभाचन्द्र, वादिदेव सूरि, यशोविजय आदि ने चित्राद्वैतवाद का तर्कपूर्ण निराकरण किया है।
जैन दार्शनिक सर्वप्रथम चित्राद्वैतवादियों से कहते हैं कि बाह्य पदार्थ की सत्ता साकार एवं निराकार ज्ञान से सिद्ध होती है। जैन दर्शन में केवल साकार ज्ञान को ही प्रमाण नहीं माना गया है।५ निराकार ज्ञान भी योग्यता के द्वारा प्रत्येक कार्य की व्यवस्था में हेतु होता है। इसलिए चित्राद्वैतवाद का यह कथन असत्य है कि निराकार ज्ञान सर्वत्र समान होने से प्रत्येक कर्म या पदार्थ की व्यवस्था में हेतु नहीं हो सकता। १. वही। २. (क) वही (ख) एकं चित्रं बहिरिह यतो वस्तुभूतं न किञ्चिन्मानारूढं कथमपि घटाकोटिमायाति तस्मात् ।
चित्रामिकां धियमनूभवेनैव संवेद्यमानां मुक्त्वा मिथ्याभिमतिमधुना किं न भो स्वीकुरुध्वे । चित्राकारामेकां बुद्धि बाह्यार्थमन्तरेणापि इत्थं मे प्रतिपन्ना: सम्प्रति तेषामियं शिक्षा ।
स्याद्वादरत्नाकर, १/१६, कारिका १६५-१६६ पृ० १७४ ३. न्यायकुमुदचन्द्र पृ० १२६ पर उद्धृत ।
आ० विद्यानंद तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक १/१ पृ० ३६-३८; प्रभाचन्द : न्यायकुमुदचन्द्र १/५ पृ० १२६-१३० । प्रभाचन्द : प्रमेयकमलमार्तण्ड, १/५ पृ० ९५-९८ । वादिदेव सूरि : स्याद्वादरत्नाकर, १/१६ पृ० १७४-१७९ ।
वादिराज सूरि : न्यायविनिश्चय विवरण प्रथम प्रत्यक्ष प्रस्ताव १/९६, पृ० ३९३-३९४ । ५. देखें-कैलाशचन्द्र शास्त्री जैन न्याय, पृ०८८ ६. (क) न्यायकुमुदचन्द्र, १/५, पृ० १२६
(ख) न्याय विनिश्चयटीका १५/१२७
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