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शतपदी प्रश्नोत्तर पद्धति में प्रतिपादित जैनाचार दिगम्बर जैन मान्यता के अनुसार वस्त्ररहित प्रतिमा ही पूजनीय है। प्रतिमा पर वस्त्र या अलंकार नहीं होना चाहिए।
शतपदीकार का कहना है कि वस्त्र एवं अलंकारों से युक्त प्रतिमा भव्य, दिव्य एवं आकर्षक लगती है। ऐसी भव्य एवं समस्त अलंकारों से विभूषित प्रतिमा के दर्शन से व्यक्ति के मन में अधिक प्रसन्नता उत्पन्न होती है । व्यक्ति जितनी अधिक प्रसन्नता का अनुभव करता है उतनी ही वह कर्म की निर्जरा अधिक करता है।
जिनप्रतिमा की प्रतिष्ठा श्रावक को ही करनी चाहिए साधुओं को नहीं। उस समय कई साधु तथा आचार्य स्वयं अपने हाथों से मूर्ति की प्रतिष्ठा-विधि करते थे और करवाते थे। शतपदीकार ने शास्त्रीय प्रमाणों से सिद्ध किया है कि प्रतिष्ठा में सचित्त जल, अग्नि और वनस्पति का उपयोग होता है । ये कार्य साधु समाचारी के विरुद्ध हैं अतः साधु को ऐसी सावद्य प्रवृत्ति में नहीं पड़ना चाहिए।
____साथ ही फल से, दीप से या बीज से जिन पूजा नहीं करनी चाहिए क्योंकि फल से, दीपक जलाने से तथा बीज के सजीव होने से इसमें अनेक जीवों की हिंसा होती है। अतः इन सजीव पदार्थों से जिन पूजा नहीं करनी चाहिए।
रात्रि में जिन पूजा नहीं करनी चाहिए और पूजा के निमित्त दीप भी नहीं जलाना चाहिए और मंगल आरती भी नहीं उतारनी चाहिए। क्योंकि दीपक में अनेक त्रस-स्थावर जीवों की हिंसा होती है।
चैत्यवन्दन की विविध विधियाँ जैन समाज में प्रचलित थीं और हैं। उनकी विसंगतता को हटाने के लिए और उनमें एकरूपता लाने के लिए उन्होंने कहा-राजप्रश्नीयसूत्र में सूर्याभदेव ने तथा जीवाभिगमसूत्र में विजयदेव ने जिस प्रकार जिन प्रतिमा के सामने चैत्यवन्दन किया वैसा ही चैत्यवन्दन श्रावक को करना चाहिए । अन्य प्रकार से नहीं।
कुछ व्यक्ति ऐसा मानते थे कि श्रावकको धर्म क्रिया करते समय मुखवस्त्रिका, रजोहरण तथा स्थापनाचार्य अवश्य रखना चाहिए। शतपदीकार ने कहा-धार्मिक क्रिया सामायिक आदि करते समय श्रावक को मुखवस्त्रिका, रजोहरण या स्थापनाचार्य अनावश्यक है। मुखवस्त्रिका तथा रजोहरण का कार्य वह उत्तरीयवस्त्र से या वस्त्र के अंचल से भी कर सकता है। श्रावक के लिए स्थापनाचार्य का विधान आगम में कहीं भी नहीं आता अतः इसका रखना निरर्थक है।
श्रावक को त्रिविध रूप से साधु की तरह ही मिथ्यात्व का परित्याग करना चाहिए। श्राद्ध, देव-देवी पूजन, बलि चढ़ाना आदि सब मिथ्यात्व है अतः इनका श्रावक को त्याग करना चाहिए।
उपधान और मालारोपण उस समय भी विशेष रूप से प्रचलित था और आज भी है। उन्होंने इस विषय में अपने विचार प्रकट करते हुए कहा --- उपधानतप और मालारोपण शास्त्र विरुद्ध है, अतः श्रावक को यह नहीं करना चाहिए तथा साधु को भी इस शास्त्रविरुद्ध विधि का विधान नहीं करना चाहिए।
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