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कवि हरिराजकृत प्राकृत मलयसुंदरीचरियं - इसके अतिरिक्त अंतिम प्रशस्ति में एक पंक्ति आयी है-हेमस्स देउ सुक्खं, हेमप्पह वीरजिणचंदो । गा. ७९६ । वीर जिनेन्द्र हेम एवं हेमप्रभ के लिए सुख प्रदान करें। यहाँ प्रथम हेम को हेमराज सुश्रावक माना जा सकता है। किन्तु हेमप्रभ कौन है, यह विचारणीय है। अगली गाथा में इस हेमप्रभ का उल्लेख है।' कहीं यह कवि हरिराज के गुरु का नाम तो नहीं है ? अन्य पाठभेदों की प्राप्ति से ही इस पर कुछ कहा जा सकेगा। रचना वैशिष्ट्य :
मलयसुंदरीचरियं को कवि ने पूर्वकथा के अनुसार लिखने की बात कही है। किन्तु संकेत नहीं किया कि उन्होंने प्राकृत कथा का आधार लिया है या संस्कृत कथा का। चूंकि कवि हरिराज का समय सं० १६२८ के लगभग है अतः उन्होंने अब तक रचित मलयसुंदरीकथा सम्बन्धी प्राकृत एवं संस्कृत रचनाओं का अवश्य अवलोकन किया होगा। इस समय तक गुजराती में भी मलयसुंदरीरास शीर्षक रचनायें की जा चुकी थीं। मलयसुंदरीकथा के परवर्ती किसी लेखक ने कवि हरिराज का उल्लेख या संकेत नहीं किया। इससे लगता है कि प्रस्तुत रचना अधिक प्रसिद्ध नहीं थी । कवि ने इसका अपर नाम ज्ञानरत्नउपाख्यान' भी दिया है। जयतिलकसूरि (सं० १४५६ ) ने भी अपनी रचना का यह अपर नाम दिया है।
इस कथा के नायक महाबल एवं नायिका मलयासुंदरी दोनों ही ज्ञान के रत्न थे। सम्भवतः इसी कारण उनके कथानक को 'ज्ञानरत्नोपाख्यान' नाम कवियों ने दिया है। जयतिलकसूरि एवं कवि हरिराज दोनों ने प्रारम्भ में रत्नत्रय एवं ज्ञान के महत्त्व को प्रकट किया है।
यथा-तृतीय लोचनं ज्ञानमदृष्टार्थप्रकाशनम् ।
द्वितीयं च रवेबिम्बं दृष्टेतरतमोऽपहम् ॥ ज्ञानं निष्कारणो बन्धुर्ज्ञानं मानं भवाम्बुधौ। ज्ञानं प्रस्खलतां यष्टिर्ज्ञानं दीपस्तमोभरे ॥
-जयतिलकसूरि, म० सुं० श्लोक १७-१८ लोयण तइयं नाणं नाणं दीवंतमोह-रसयलं । नाणं तिहुयणसूरं नाणं अप्पाणं मल-दहणं ।।
-हरिराज, म० सुं०च० गाथा ९ इससे प्रतीत होता है कि कवि हरिराज ने जयतिलकसूरि कृत मलयसुंदरीकथा शीर्षक संस्कृत रचना का अवलोकन कर इस प्राकृत कथा को संक्षेप में प्रस्तुत किया है। इन दोनों
१. हेमप्पहारि येण (कियं) पडलए सुक्खं चउहिंकारा ।। गा० ७९७ २. सं० १५४३ में कवि उदयधर्म का 'मलयसुन्दरीरास' एवं सं० १५८० में चारुचन्द्र का 'महाबल मलय
सुन्दरीरास' की कई प्रतियां प्राप्त हैं। ३. शर्मा, डा० ईश्वरानन्द; 'कवि जिनहर्षकृत मलयसुन्दरी चरित्र एक पर्यवेक्षण' नामक लेख, मरुधरकेशर
अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० ३५२-३६१ ४. जैसलमेरकलेक्शन-सं० मूनि पूण्यविजय, पृ० २००, रावीं पोथी में संख्या १७५ की प्रति
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