Book Title: Panchsangraha Part 10
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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प्राक्कथन
'पंचसंग्रह' ग्रन्थ का यह सप्ततिका नामक अन्तिम अधिकार है। 'पंचसंग्रह' जैन कर्मसिद्धान्त की विवेचक कृति है । इसके रचयिता श्रीमदाचार्य चन्द्रर्षि महत्तर हैं।
उपलब्ध प्रमाणों से यह तो स्पष्ट है कि वार्तमानिक कर्म साहित्य के आलेखन के आधार अग्रायणीय पूर्व और कर्मप्रवाद पूर्व हैं। अग्रायणीय पूर्व की पांचवी वस्तु के चौथे प्राभृत में कार्मिक विवेचन किया गया है और नामानुरूप कर्मप्रवाद पूर्व में तो मुख्य रूप से कर्म सिद्धान्त का ही वर्णन है। लेकिन काल-प्रभाव तथा बौद्धिक प्रगल्भता के अभाव में पूर्वज्ञान एवं पूर्वज्ञों की परंपरा का विच्छेद हो जाने से पूर्वगत ज्ञाननिधि भी विलुप्त सी हो गई । जिससे वर्तमान में उपलब्ध कर्म साहित्य आकर और प्राकरणिक इन दो रूपों में विभाजित हो गया।
इन दो रूपों में से आकर ग्रन्थों में पूर्वोद्धृत यत्किचित् अंश समाहित है और प्रकरण ग्रन्थ तृतीय साहित्य उद्धार के समय लिखे गये पाठकों को सुगमता से बोध कराने वाले अपने अधिकृत विषय के विवेचक हैं। आकर ग्रन्थों के रूप में शतक, सप्ततिका, कषायप्राभूत, सत्कर्म प्राभृत, कर्मप्रकृति आदि ग्रन्थ माने जाते हैं।
पूर्वज्ञान की विलुप्ति की तरह जैन परंपरा भी श्वेताम्बर और दिगम्बर इन दो भागों में विभाजित हो गई । इसका परिणाम यह हुआ कि ग्रन्थों के नामकरण में एकरूपता रहने पर भी कुछ पाठभेदों द्वारा कतिपय अंशों में भिन्न वर्णन किया गया है। जिसका कारण यह है कि दैशिक, कालिक परिस्थितियों के कारण विज्ञ आचार्यों का संपर्क नहीं रहा और जब चर्चा-वार्ता का प्रसंग आया तब तक भिन्न
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