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२० : पद्मावती
धर्म में अटूट श्रद्धा थी और वे एक से अधिक देवताओं की उपासना करते थे । उनके अभिलेखों में 'शिवलिंगोद्वहन' शब्द प्राप्त होता है। शिव के उपासक होने का इससे अधिक ठोस प्रमाण और क्या हो सकता है ।
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अपने विचार प्रगट
पुराणों ने भी भारशिव वंश की राज्य स्थापना के सम्बन्ध में किये हैं । कुषाणों के शासन को समाप्त करने के बाद एक भारशिव राजा गंगा के पवित्र जल से अभिषिक्त होकर हिंदू सम्राट के पद पर प्रतिष्ठित हुआ होगा । इस सम्बन्ध में डॉ० जायसवाल का कथन है कि भारशिव राजा सौ वर्ष के कुषाण शासन के उपरान्त ही अभिषिक्त हुआ होगा । अभिषिक्त होने के सम्बन्ध में पुराणों का उल्लेख महत्वपूर्ण प्रतीत होता है । यह कथन है, 'नैव मूर्धाभिषिक्तास्ते' । इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि पुराण मूर्धाभिषिक्त राजा का उल्लेख अवश्य करेंगे । इसका अर्थ यह होगा कि जो राजा मूर्धाभिषिक्त नहीं होगा, वह राजसिंहासन पर आरूढ़ मूर्धाभिषिक्त राजाओं की सूची में उल्लिखित नहीं होगा । ऐसे कई राजा हुये जिन्होंने आर्यों की पवित्र भूमि में दस-दस अश्वमेध यज्ञ किये । जिस राजा ने ये अश्वमेध नहीं किये उसका नाम सूची में नहीं दिखाया गया । पुराणों ने तो ऐसे शुंग राजाओं का भी उल्लेख किया है जिन्होंने अश्वमेध यज्ञ किये थे । शुंगों ने दो अश्वमेध यज्ञ किये और सातवाहनों ने भी दो अश्वमेध यज्ञ किये थे । इससे इस बात की पुष्टि हो जाती है कि भारशिव वंश की जड़ें धर्म द्वारा सिंचित थीं, उनका राज्य एक ऐसा राज्य था जिसकी आधारशिला धर्म थी ।
३.७ भारशिव वंश की स्थापना एवं शाखाएँ
सिक्कों के आधार पर भारशिव वंश के संस्थापक और पद्मावती तथा मथुरा शाखाओं का उल्लेख संक्षेप में इस प्रकार है।
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नवनाग : इसका समय लगभग १४० ई० से १७० तक निर्धारित होता है । इसके सिक्के मिले है | नवनाग ने २७ वर्ष या इससे कुछ अधिक समय तक शासन किया। इसके सिक्के पर २७ वाँ वर्ष लिखा हुआ है । इसे भारशिव का संस्थापक माना गया है । कालांतर में नवनाग वंश नाम के रूप में अपना लिया गया ।
वीरसेन : लगभग १७० ई० से २१० ई० तक का समय माना जाता है । वीरसेन के पर भी वीरसेन का नाम मिलता है । तक शासन किया । इसे भारशिव की
समझा जाता है ।
भारशिवों की कांतिपुरी वाली शाखा में विशेषकर चार नाम उल्लेखनीय हैं। :
हयनाग — सिक्कों पर हयनाग का नाम आता है । हयनाग का समय सन् २१०
से २४५ तक का निश्चित किया गया है । इसके शासन का समय ३० वर्ष से अधिक माना
गया है ।
सिक्के तो मिलते ही हैं, इसके साथ ही शिलालेखों बताया जाता है कि इसने ३४ वर्ष से अधिक समय मथुरा और पद्मावती की शाखाओं का संस्थापक
त्रयनाग : त्रयनाग का समय २४५ से २५० ई० तक का निर्धारित किया गया है । नाग के भी सिक्के मिलते हैं । इसका शासन अल्पकालिक रहा।
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