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७८ पद्मावती
में भी नागरिकों की श्रेष्ठता अप्रतिभ थी । आज भी जो अवशेष मिले हैं उनसे इस समय की कला की उत्कृष्टता प्रमाणित हो जाती है।
पद्मावती ने भारशिवों के शासन-काल में जीवन के वे गौरवशाली दिन बिताये। कालान्तर में उसकी ख्याति धूमिल होती गयी है । मध्य काल में यद्यपि स्थापत्य कला के कुछ नमूने तैयार हुए और व्यक्तियों ने सौन्दर्य के प्रति अपने आकर्षण को निरन्तर बनाये रखा, किन्तु उत्तर मध्यकाल तक आते-आते पद्मावती की ख्याति खण्डहरों में समा चुकी थी। वर्षों तक लोग उसे पहचान न पाये कि वर्तमान पवाया ही प्राचीन पद्मावती नगर था जो कभी अत्यन्त वैभवशाली रह चुका था। कहते हैं कि बारह वर्ष में घूरे के दिन भी पलटते हैं । बारह नहीं बारह सौ वर्षों में सही, पद्मावती के उस प्राचीन गौरव का स्मरण किया गया। पवाया के भग्नावशेष आज भी विदीर्ण हृदय में उस काल की स्मृति को सँजोये हुए हैं जब पद्मावती मध्यदेश का एक ख्यातिप्राप्त नगर था जिसकी गणना समस्त भारतवर्ष के कुछ गिने-चुने नगरों में की जाती थी।
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