Book Title: Padmavati
Author(s): Mohanlal Sharma
Publisher: Madhyapradesh Hingi Granth Academy

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Page 47
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पद्मावती की संस्थापना : २६ आगे जाकर बेतवा में मिलती हैं । यह ब्राह्मणों का बड़ा और बहुत पुराना गाँव है और इसमें अधिकतर भागौर ब्राह्मण रहते हैं ।" विन्ध्यशक्ति को यदि सेनापति न भी मानें, तो भी भवनाग का करद राजा मानना पड़ेगा। विदिशा और पुरिका का शासक होते हुए भी भवनाग का करद राजा होने पर भी उसकी स्थिति पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता है । ३.१२ भवनाग और महरौली का स्तम्भलेख भवनाग की मुद्रा के चिह्नों को महरौली के स्तम्भशीर्ष के सन्दर्भ में देखने से उसके शौर्य और पराक्रम पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है । यद्यपि भवनाग और समुद्रगुप्त के समय में पर्याप्त अन्तर है, किन्तु समय के इस अन्तर ने नागवंशीय कीर्ति को विनष्ट नहीं किया, महरौली के स्तम्भ से इस बात की पुष्टि हो जाती है । स्तम्भलेख इस प्रकार है : "वह जिसने अपनी भुजा की कीर्ति को अपने खड्ग द्वारा अभिलिखित किया, तब जब कि बंगदेश के युद्ध में उसने अपनी छाती से उन शत्रुओं को रौंद डाला, जो शत्रु समवेत हो कर उसका मुकाबला करने आये थे, वह, जिसके द्वारा सिन्धु के सप्तमुखों को पार करके वाहकों को विजित किया गया ।" "वह, जिसके शौर्य के पवन से दक्षिण का जलनिधि अब भी सुवासित है, वह, जिसकी उस शक्ति के अपार उत्साह की कीर्ति, जिसने अपने शत्रुओं को पूर्णतः नष्ट कर दिया था, महावन में प्रज्वलित अग्नि के शमन होने के पश्चात् उसके अवशिष्ट ताप के समान, अभी भी क्षिति पर शेष है, यद्यपि वह नरपति मानो थक कर इस संसार को छोड़ कर मानो स्वर्ग में चला गया है, जो उसने अपने कर्मों द्वारा जीता है, तथापि वह इस पृथ्वी पर अपनी कीर्ति के रूप में स्थित है, उस समग्र चन्द्र जैसे श्री - सम्पन्न मुख वाले, जिसने अपनी भुजाओं द्वारा अर्जित एकमात्र अधिराज के पद को प्राप्त किया और बहुत समय तक भोगा । उस चन्द्रविरुदधारी भूमिपति भव ने ( न कि भाव ने) विष्णु में अपनी मति स्थित कर त्रिष्णुपद नामक गिरि पर विष्णु की यह भुजा स्थापित की ।" ( इस अभिलेख की पाँचवी पंक्ति में विष्णु के पहले का शब्द स्पष्ट नहीं है, प्रिंसेप ने इसे धावेन पढ़ा | भाऊदाजी इसे भावेन पढ़ते हैं । फ्लीट उसे धावेन ही मानते हैं, परन्तु कहते हैं कि यहाँ उत्कीर्णक की गलती से भावेन के स्थान पर धावेन हो गया है। डॉ० दिनेशचन्द्र सरकार लिखते हैं कि इसका पहला अक्षर 'ध' हो सकता है, सम्भव है कि वह 'व' हो । उनके मत से वह 'भ' नहीं हो सकता । वे यह भी लिखते हैं, कि प्रलोभन यह होता है कि उसे 'देवेन' पढ़ा जाय ( १ - कारपस इनस्क्रिप्शंस इण्डिका, खंड ३, पृष्ठ २४२) । किन्तु एक प्रलोभन यह भी होता है, कि इसे भवेन पढ़ा जाये (भव द्वारा ) । इस लेख से भवनाग अथवा नागवंश के किसी पराक्रमी राजा के विषय में तीन बातों की जानकारी हो जाती है : For Private and Personal Use Only

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