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पद्मावती के ध्वंसावशेष : ४५
देवी-देवता सुख, समृद्धि और विलास के प्रतिनिधि हैं। नृत्य, संगीत और सुरापान ही इनके प्रिय विषय हैं । संगीत और नृत्य के दृश्य को प्रस्तुत करने वाली एक ऐसी मूर्ति पवाया से मिली है जिसमें वाद्य के विविध प्रकार भी बताये गये हैं। संगीत समारोह का यह अनुपम दृश्य बड़ा आकर्षक प्रतीत होता है। मथुरा-कला में भी गायन और वादन के ऐसे चित्र मिल जाते हैं, जिनसे इन दोनों स्थानों की समान संस्कृति का आभास होने लगता है।
परखम में यक्ष की जो विशालकाय मूर्ति मिली है उसकी तुलना पवाया के माणिभद्र यक्ष की मूर्ति से की जा सकती है। ऐसी ही एक अन्य मूर्ति मथुरा के बड़ोदा गाँव से प्राप्त हुई थी। इन मूर्तियों के बनाने में मूर्तिकला की उत्कृष्टता तो इसी बात में है कि इन्हें चारों ओर से देखा जा सकता है। इन मूर्तियों को कोर कर बनाया गया है।
माणिभद्र यक्ष की मूर्ति और मथुरा की कुबेर यक्ष की मूर्तियों में अद्भुत समानता है । उस काल में कुबेर की उपासना तो इतनी लोकप्रिय हो चुकी थी कि हिन्दुओं के अतिरिक्त जैन और बौद्ध धर्मावलम्बी भी कुबेर को पूजने लगे थे। कुबेर के हाथ में सुरा-पात्र, बिजोरा-नीबू, तथा रत्नों की थैली पायी जाती है । माणिभद्र यक्ष के हाथ में भी इसी प्रकार की एक थैली है।
मथुरा और पद्मावती की यक्ष मूर्तियाँ दोनों राज्यों की समान राजनीतिक, धार्मिक एवं सामाजिक परिस्थितियों की बोधक हैं। धन का भण्डारी कुबेर यदि मथुरा में धन-सम्पत्ति की वृद्धि कर रहा था तो उसका सहोदर माणिभद्र पद्मावती में सुख और समृद्धि को बढ़ा रहा था । ४.४ मानवाकार नन्दी
पवाया के निकट जितने अवशेष प्राप्त हुए हैं, उनमें से अधिकांश प्राचीन काल के हैं -नाग शासन के स्मृति-चिन्ह । जिस टीले पर ताड़-स्तम्भशीर्ष मिला था उससे कुछ ही दूरी पर कुछ अन्य आकृतियाँ मिली हैं जो बेलबूटेदार हैं। ये आकृतियाँ गुप्तकालीन मूर्तिकला से समानता रखती हैं । कुछ अन्य मूर्तियां जो गुप्तकालीन कला के नमूने प्रतीत होती है पवाया के ग्रामीणजनों ने गाँव के उत्तर में एक कच्चे चबूतरे पर संकलित की हैं । ये सभी मूर्तियाँ गाँव के आस-पास से ही संकलित की गयी हैं। इनमें से एक मूर्ति एक माता और शिशु की है जोकि एक मंच पर आसीन है । यह मूर्ति बेसनगर के संग्रहालय में रखी सात माताओं की मूर्तियों से समानता रखती है । इन्हीं मूर्तियों में से एक नन्दी की मूर्ति भी उल्लेखनीय है। नन्दी का सिर तो साँड़ का-सा है किन्तु धड़ मानवाकार है। यह मूर्ति चारों ओर कोरकर बनायी गयी है। नन्दी की मूर्ति नागकालीन है । वायु पुराण में वेदिश नागों को शिव का साँड़ अथवा नन्दी कहा है। यथा, वृषान् वेदिशकांश्चापि भविष्यांश्च निबोधत-२-३०-३६० । नागों के सिक्कों में भी साँड़ के चिन्ह पाये जाते हैं । नन्दी की मूर्ति सम्भवतः शिव के सामने उसके वृषत्व को प्रकट करने के लिए खड़ी की गयी होगी, ऐसा अनुमान करना असंगत प्रतीत नहीं होता । यह मूर्ति भी नागकालीन कला का अच्छा नमूना प्रस्तुत करती है।
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