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७४ : पद्मावती साथ कही जा सकती है कि सार्थवाहों में यक्षों के प्रति अटूट श्रद्धा थी। जिस प्रकार पद्मावती में माणिभद्र यक्ष की प्रतिमा मिली है वैसी ही महापथों के एक अन्य केन्द्र विदिशा में कुबेर की मूति मिली है। डॉ० मोतीचन्द्र ने यह अनुमान लगाया था कि विदिशा में कुबेर का मन्दिर होगा। इस मूर्ति के मिलने से उनका यह विचार सही प्रतीत होता है। इस प्रतिमा के सहारे एक अन्य विचार भी सत्य प्रतीत होता है, वह यह कि विदिशा में जो कल्प-वृक्ष-स्तम्भ प्राप्त हुआ है वह कुबेर के इस मन्दिर का ही होगा। ये सार्थवाह धनधान्य सम्पन्न थे इसमें तो कोई संदेह नहीं। कुबेर धन का भण्डारी माना जाता है और कल्पवृक्ष प्रत्येक प्रकार की मनोकामना को पूर्ण कर देता है। इसी आशय को ले कर सार्थवाहों ने धन प्राप्त करने की कामना के साथ इस मन्दिर का निर्माण कराया होगा। कहा जाता है कि धन-कमाना इन सार्थवाहों का मुख्य उद्देश्य रहता था। किन्तु ये मुक्तहस्त से दान भी करते थे । स्वदेश लौटने पर ये सवा पाव-सवा मन तक सोने का दान करते थे । इससे इनकी धन सम्पन्नता और दानशीलता का परिचय मिलता है। ६.६ उपासनाओं का समन्वय और हिन्दू धर्म का उदय
इस युग में एक संकटकाल जैसी परिस्थिति उत्पन्न हो गयी थी और विदेशी आक्रमणों से जूझने की स्थिति अधिक निकट आ गयी थी । विष्णु, शिव, वराह, कूर्म और मत्स्य आदि के उपासकों में अब कोई दूरी नहीं रह गयी थी और सभी एक धरातल पर बैठ कर एक जैसे प्रयत्न में लीन हो गये थे। महाभारत के अनेक प्रसंगों में शिव और विष्णु की उपासना एक साथ किये जाने का उल्लेख है। परशुराम को ऋग्वेद रुद्र ऋषि कहता है किन्तु इस युग में वे विष्णु का अवतार कहलाये । भवनाग के द्वारा विष्णु पद पर विष्णु-ध्वज की स्थापना एक ऐसा ही कदम है जिससे शिव और विष्णु के समन्वय का आभास होता है। शैव सातवाहनों के शिलालेखों में विष्णु में भक्ति भी इसी ओर संकेत करती है। जो ब्राह्मण यह समझने लगे थे कि यज्ञ करने के पश्चात् उन्हें ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति हो गयी है वे वराह, कूर्म आदि में विष्णु का दर्शन करने लगे थे और यह मानने लगे थे कि वे ऐसे देवता हैं, जिन्होंने वेदों और पृथ्वी का उद्धार किया है।
अतएव ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों के इस युग को हम ऐसा युग मान सकते हैं जिसमें हिन्दू धर्म का प्रादुर्भाव एक ऐसे रूप में होता है जो जनमानस और आशा का संदेश फूंक देता है । इस धर्म में यद्यपि वैविध्य के दर्शन तो होते हैं फिर भी यह भारत की उस मूलभूत सांस्कृतिक और धार्मिक एकता का चित्र प्रस्तुत करता है जो आज तक अक्षुण्ण चला आ रहा है। वह एकता आज भी वैसी ही बनी हुई है, जिसकी नींव इस युग में पड़ चुकी थी। ६.७ गाय की पवित्रता
भारत में आज भी गाय को अत्यन्त पवित्र स्थान प्राप्त है। गो के प्रति पूज्यभाव की जड़ें नागवंश के इस साम्राज्य के समय में ही जम चुकी थीं। गुप्तकाल में जो शिलालेख तैयार किये गये थे उनमें गाय तथा साँड़ को पवित्र स्थान दिया गया है। किन्तु
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