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पद्मावती के नवनागों की धर्म-साधना : ७५
यह पवित्रता एकाएक उत्पन्न हो गयी हो, ऐसी बात नहीं। यह बात सही है कि गुप्तों ने नागों के अन्य कई अवशेषों को अपना लिया और उन्हें आदरपूर्ण स्थान दिया। साथ ही उन्होंने गाय को भी नहीं भुलाया। भारशिव तो स्वयं को शिव का नन्दी मानने में गौरव का अनुभव करते थे । हमें इस बात का भी पता चलता है कि कुषाणों ने गाय और साँड़ को कोई विशेष स्थान नहीं दिया था। यहाँ तक कि उनकी पाकशाला में तो साँड़ मारे जाने लगे थे। किन्तु गुप्तकाल में इन प्राणियों पर दया दिखायी गयी और ऐसे अनेक प्रयत्न किये गये जिनसे इनकी रक्षा की जा सके । यद्यपि यह बात भी सच है कि गाय की इस पवित्रता की भावना को निरन्तर धक्के लगते रहे किन्तु यदि हिन्दू धर्म में उनका आज भी जो स्थान बना हुआ है उसका श्रेय भारशिवों को मिलना चाहिए । उन्होंने पद्मावती और मथुरा तथा कान्तिपुरी में अपनी राजधानियाँ बनायीं और गाय की पवित्रता को अपने धर्म में प्रमुख स्थान दिया। ६.८ नागर लिपि
ऐसा अनुमान लगाया जाता है और वह किसी अंश तक सही भी जान पड़ता है कि नागरी लिपि का यह नाम नागों के राजवंश के कारण ही पड़ा होगा। कहने के लिए तो नागरी लिपि के उद्भव के अन्य कारण भी बताये गये हैं किन्तु इसका जन्म मध्यदेश में हुआ था और मध्यदेश नागों के संरक्षण में रहा था। इस कारण नागरी लिपि पर प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से नागों का प्रभाव पड़ा था। डॉ० काशी प्रसाद जायसवाल का मत है कि अक्षरों पर शीर्ष रेखा लगा कर लिखने की प्रथा का आविर्भाव और विशेष प्रचलन नागों के शासन काल में ही हुआ था। इसके प्रमाण में उन्होंने पृथ्वीसेन प्रथम के समय के 'नचना' और 'गंज' के शिलालेखों का उल्लेख किया है। इन शिलालेखों को पृथ्वीसेन द्वितीय के मानने में उन्होंने अपनी असहमति प्रकट की है। उनके अनुसार “ऐपीग्राफिया इण्डिका, खण्ड १७, पृष्ठ ३६२, में जो यह एक नयी बात कही गयी है कि नचना और गंज के शिलालेख पृथ्वीसेन द्वितीय के हैं उससे मैं अपना मतभेद जोरदार शब्दों में प्रकट करता हूँ। मैंने उनकी लिपियों का बहुत ध्यानपूर्वक मिलान किया है और यह स्थिर करना असम्भव है कि ये ईसवी चौथी शताब्दी के बाद के हैं। इन लेखों के काल के सम्बन्ध में फ्लीट का जो मत था वह बिल्कुल ठीक था । पृथ्वीषेण द्वितीय के प्लेटों से यह बात स्पष्ट रूप से प्रकट होती है 'नचने' वाला पृथ्वीषेण उससे बहुत पहले हुआ था ।"१
वाकाटक शिलालेखों में अक्षरों को ऊपर की ओर संदूकनुमा शीर्ष रेखा से घिरे हुए बताया गया है । ऐसा प्रतीत होता है कि अपने वर्तमान रूप में नागरी लिपि आठवीं शताब्दी के लगभग विकसित हो पायी होगी। प्रारम्भ में तो संदूकनुमा शीर्षरेखा वाले अक्षरों सम्बन्धी लिपि ईसा की चौथी और पाँचवीं शताब्दी के लगभग प्रचलित थी। उसे ही नागरी लिपि का नाम दिया गया था। इस सम्बन्ध में एक अन्य बात भी विचारणीय है । वह यह कि इस प्रकार की लिपि का सर्वाधिक प्रचलन ऐसे स्थानों में मिलता है जहाँ नागों का शासन
१. अन्धकारयुगीन भारत-पृष्ठ १२ ।
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