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५२ : पद्मावती
कहा जा सकता है, पहली बात यह कि वह नागवंशीय राजा था, और दूसरी बात यह कि वह एक लोकप्रिय शासक था। ४.६ सुवर्ण बिन्दु शिवलिंग
सिंध और महुअर नदी के संगम पर पवाया से लगभग दो मील पूर्व में एक चबूतरे पर शिवलिंग मिला है । 'मालती माधव' नाटक में इसे सुवर्ण बिन्दु शिवलिंग की संज्ञा दी गयी है। चबूतरा तो पत्थर तथा चूने गारे का बना हुआ है, किन्तु उसमें ईंट भी किसी मात्रा में मिलाई गयी है । इसकी ऊँचाई दो सीढ़ियों भर की है । चबूतरे की लम्बाई 10 फूट और चौड़ाई 16 फुट है। शिवलिंग बहुत प्राचीनकालीन प्रतीत होता है। इस चबूतरे के नीचे ही नीचे एक माँ और बेटे की मूर्तियों के निम्न भाग हैं । बालक एक मंच पर बैठा है । स्त्री के वलय और पायल को देख कर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इन मूर्तियों का निर्माण गुप्तकाल के अन्त में कभी हुआ होगा। चबूतरे पर प्रधान रूप से सुवर्ण बिन्दु अर्थात शिव स्थापित हैं । सम्भव है यह चबूतरा बाद में बनाया गया हो । किन्तु इस बात को मानना होगा कि किसी-न-किसी प्राचीन स्मारक का बोध अवश्य कराता है। ४.१० नागों के राजकीय चिह्न गंगा और यमुना
नागों ने कई राजकीय चिह्नों का व्यवहार किया है । कई चिह्नों ने तो धर्म का चोगा पहन लिया और पवित्र बन गये । इनके सम्बन्ध में मूर्तिकला के प्रयोग भी प्रायः होते रहे । नागकालीन मूर्तिकला के कुछ अभिप्राय (मोटिफ) एवं अलंकरणों ने भारतीय मूर्तिकला को अत्यधिक प्रभावित किया । यहाँ तक कि कुछ अलंकरण तो परवर्ती मूर्तिकला के अंग ही बन गये । इस प्रकार के उपकरणों में विशेषकर (क) गंगा, मकरवाहिनी गंगा, जैसी कि उदयगिरि की वराह मूर्ति के दोनों ओर गुप्तकाल में बनी, (ख) ताड़वृक्ष, तथा (ग) नागछत्र का विशेष रूप से उल्लेख किया जा सकता है।
गंगा तो नागवंशीय राजाओं का राजचिह्न बन ही गयी थी। नागवंशीय सिक्कों पर भी गंगा की मूर्ति कलश धारण किये हुए दिखायी देती है । सिक्कों के अतिरिक्त अपने शिव मन्दिरों को सजाने में भी इसका उपयोग किया गया । गुप्तों ने भी इस रूप में इसका उपयोग किया। जानखट के अभिलेखयुक्त एक मन्दिर के अवशेषों को देख कर इस बात की पुष्टि की जा सकती है कि मन्दिर के द्वार के ऊपर मकरवाहिनी गंगा की मूर्ति का उपयोग सजाने के लिए किया जाने लगा था । मध्यकाल तक के हिन्दू मन्दिरों में गंगा का उपयोग इस रूप में किया जाने लगा था। इसके उपयोग के विकास की कई सीढ़ियाँ हैं । पहलेपहल मकरवाहिनी गंगा की मूर्ति द्वार के दोनों ओर एक ही रूप में बनायी जाती थी। प्रारम्भ में यह द्वार की चौखट के दोनों बाजुओं के ऊपर की ओर बनायी जाती थी। कहीं गंगा किसी वृक्ष की विशेषकर फल वाले आम की डाली पकड़े दिखायी गयी । फिर इसमें एक परिवर्तन और आया । अब ये दोनों ओर की मूर्तियाँ बाजुओं की ओर आ गयी और एक ओर की मकरवाहिनी गंगा दूसरी ओर की, कूर्मवाहिनी यमुना बन गयीं । उदाहरणार्थ-मंदसौर के
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