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७० : पद्मावती थे और इस प्रकार वे कट्टर शिव मतावलम्बी थे । किन्तु इस सम्बन्ध में कतिपय ऐसी बातों का उल्लेख किया जायगा जिससे यह सिद्ध होगा कि विदिशा के नवनागों पर भागवत धर्म की अमिट छाप थी। ऊपर इस बात का उल्लेख तो किया ही जा चुका है कि नागों ने अश्वमेध यज्ञ करने के उपरान्त ही पद्मावती जैसी राजधानी को प्राप्त किया था। दूसरी बात यह कि उनके सातवाहनों और वाकाटकों के साथ घनिष्ट सम्बन्ध थे। सातवाहन भागवत धर्मावलम्बी थे । अतएव नागों पर इस धर्म का प्रभाव पड़ना स्वभाविक था।
ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों में हमें धर्म के समन्वयवादी रूप के दर्शन होते हैं । नागों ने शिव और विष्णु के समन्वित स्वरूप को अपनाया था। इस विचार को प्राथमिक रूप से पोषण देने वाले ग्रन्थों में महाभारत का नाम लिया जा सकता है। स्थान-स्थान पर हमें इस बात के संकेत मिलते हैं कि शैव और वैष्णव उपासनाओं में अत्यधिक समन्वय था। महाभारत के वनपर्व में देव सेनापति स्कन्द को 'वासुदेव प्रिय' नामक संज्ञा दी गयी है। यह इस बात की ओर संकेत करता है कि स्कन्द शैव और वैष्णव दोनों ही था। और तो और वनपर्व के एक अन्य उल्लेख में इस बात की ओर संकेत किया गया कि भगवान शंकर स्वयं विष्णु और वासुदेव का स्तवन करते हैं । वासुदेव कृष्ण महाभारत के अनुशासन पर्व में शंकर की उपासना करते हुए बताये गये हैं । वे उनसे वरदान प्राप्त करते हैं । एक अनोखी बात तो यह है कि शान्तिपर्व में भगवान शंकर स्वयं इस बात की घोषणा करते हैं कि उनमें और विष्णु में कोई भेद नहीं हैं। इसी कारण कुछ ऐसे शब्दों की रचना हुई जो शिव और विष्णु दोनों के लिए समान रूप से व्यवहृत होते थे। ऐसे शब्दों में स्थाणु, ईशान, रुद्र और स्वयं शिव भी हैं जिनका अर्थ शिव और विष्णु दोनों किया गया है।
भीष्मपर्व में एक ऐसा प्रसंग आता है जिसमें कृष्ण अर्जुन को दुर्गा की आराधना करने का मंत्र देते हैं तथा वनपर्व में अर्जुन पाश्यत् अस्त्र के लिए शंकर की आराधना करता है। शंकर, वासुदेव और अर्जुन की दिव्यता को प्रतिपादित करते हैं। इस उल्लेख के साथ विशेषरूप से महत्वपूर्ण शब्द तो वे हैं जिनमें विष्णु स्वयं शंकर को निर्देशित करते हैं। उनका यह कहना कि जो आपको जानता है वह मुझे भी जानता है तथा जो आपकी उपासना करता है वह मेरी भी उपासना करता है । ये समन्वयवादी दृष्टिकोण के मूलमंत्र हैं। विष्णु के श्रीवत्स को शिव का त्रिशूल बताया गया। यह इस बात का ठोस प्रमाण है कि शिव और विष्णु में कोई अन्तर नहीं रह गया था।
इस युग के धर्म की आत्मा शिव और विष्णु की अभिन्नता ही थी। उदाहरण के लिए शुंग शैव भी थे और भागवत भी । इस समन्वयवाद की छाप साहित्य में प्रतिबिम्बित होती है। जैसे कि 'मृच्छकटिक' नाटक के आरम्भ में शिव का स्तवन किया गया है किन्तु उसके पाँचवें अंक के प्रारम्भ में केशव का स्मरण मिलता है। कालिदास शैव भी थे और वैष्णव भी इस बात का प्रमाण उनकी रचनाओं के मंगलाचरण तथा 'रघुवंश' और 'मेघदूत' एवं नाटकों की कथावस्तु से ध्वनित होता है। सातवाहनों के सम्बन्ध में भी यह बात आसानी से कही जा सकती है कि वे शिव और विष्णु दोनों की आराधना करते थे । स्वयं वाकाटक जो कि कट्टरपंथी शैव थे विष्णु में अपनी आस्था प्रगट करते थे। यह बात अभिलेखों के द्वारा भी सिद्ध
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