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४८ : पद्मावती आती हैं जो हाथ से गढ़ कर बनायी गयी होंगी। दूसरे वर्ग में उन मूर्तियों को रखा जा सकता है जिनके बनाने में किसी साँचे का प्रयोग किया गया होगा।
इन दोनों स्थानों के देवी-देवताओं और लोक-जीवन चित्रित करने वाली मूर्तियाँ तो निर्विवाद रूप से उत्कृष्ट हैं, किन्तु ऐसी मूर्तियाँ भी जो बच्चों के खेलने के लिए खिलौने के रूप में बनायी गयी हैं उनमें भी कलाकारों की कलाप्रियता का आभास मिल जाता है । भारतीय कला में हाथी और घोड़े का विशेष स्थान है। इन दोनों प्राणियों की मूर्तियाँ मथुरा और पद्मावती में सम्पन्न रूप से पायी जाती हैं । इन दोनों स्थानों पर ऐसी मूर्तियाँ भी मिलती हैं जो किसी भाव-विशेष के प्रदर्शन के लिए बनायी गयी हों। जैसे रोते हुए बालक का चित्र । माँ गोद में बच्चे को ले कर दुलार कर रही है। कुछ मूर्तियाँ ऐसी हैं जिनमें राजसी ठाटबाट में एक स्त्री पंखा लिये खड़ी है । पत्थर पर जिस प्रकार की उत्कृष्ट मूर्तियाँ बनायी जा सकती हैं वैसी ही मिट्टी से बनी ये मूर्तियाँ जीवन के आकर्षक पक्ष का प्रदर्शन करती हैं। कोई राजकुमार रथ पर बैठ कर बाहर जा रहा है । किसी मूर्ति में एक सुन्दर स्त्री साड़ी पहने दिखायी गयी है और बच्चे को गोद में लिये खड़ी है । मथुरा में भी ऐसी मूर्तियाँ मिलती हैं, जिनमें स्त्रियों के केशों को विविध प्रकार से सजाया गया है। ऐसी ही मूर्तियाँ पद्मावती में भी मिलती हैं । एक मूर्ति तो मथुरा में ऐसी भी मिली है, जिसमें पुरुषों के केशों को सँवारने की झाँकी मिल जाती है । स्त्रियों और पुरुषों के केशों को सँवारने की कौन-सी विधियाँ प्रचलित थीं इसकी स्पष्ट झलक हमें मृणमूर्तियों के द्वारा मिल जाती है । मथुरा और पद्मावती की एक ही प्रकार की मूर्तियाँ समकालीन होनी चाहिए। दोनों स्थानों की समान प्रकार की मूर्तियाँ समान सामाजिक और कलात्मक अभिरुचि का बोध कराती हैं।
४.६ संगीत समारोह का एक अनुपम दृश्य
पवाया के मन्दिर के तोरण पर अनेक पौराणिक आख्यानों का अंकन धार्मिक भावना से ओत-प्रोत हो कर किया गया होगा । यह नृत्य और गायन-वादन का एक अद्भुत संगम प्रस्तुत करता है । भगवान के भजन में एकाग्रचित्त होने और मन को रमाने के लिए इन साधनों की आवश्यकता समझी गयी होगी। मन्दिर के गाने-बजाने का यह दृश्य एक प्रस्तर खण्ड पर अंकित है । यह प्रस्तर खण्ड चार वर्गफुट वर्गाकार आकृति का है। अब जिस रूप में प्राप्त हुआ है, उसमें ऊपर की ओर का बायाँ कोना तनिक खण्डित हो गया है।
इस दृश्य के मध्य में एक आह्लादित स्त्री की मूर्ति है, जिसका भाव-भंगिमापूर्ण नर्तन मन को मोह लेता होगा । उसके उरोजों पर एक लम्बा वस्त्र बँधा हुआ है जिसका छोर एक ओर लटक रहा है। इस मूर्ति के दोनों हाथों में चूड़ियाँ हैं । अन्तर केवल इतना है कि दाहिने हाथ में चूड़ियों की संख्या बहुत कम है, लगता है दो-चार चूड़ियाँ ही होंगी किन्तु बायाँ हाथ कलाई से कुहनी तक चूड़ियों से भरा हुआ है । इसका कारण सम्भवतः दायें हाथ की उपयोगिता ही रही होगी । काम-धन्धे में दाहिने हाथ का प्रयोग विशेष रूप से होता है, अतएव उसे आभूषणों के गुरु भार से मुक्त रखा गया है। इसे देख कर लगता है कि जीवन की वास्तविकताओं का प्रतिबिम्ब तत्कालीन कला में अपनी सार्थकता के साथ अवतरित हुआ
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