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पद्मावती के ध्वंसावशेष : ४७
पद्मावती की इन मृण्मूर्तियों की तुलना राजघाट (काशी) एवं अफगानिस्तान के प्राचीन 'कपिशा' के स्थान पर प्राप्त इसी प्रकार की केशविन्यास वाली मूर्तियों से की जा सकती है। राजघाट में प्राप्त इन मूर्तियों के विषय में डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने 'नागरी प्रचारिणी पत्रिका' वर्ष ४५, पृष्ठ २१५-२२६ में विस्तारपूर्वक चर्चा की है । कपिशा की मृणमूर्तियों के केशकलाप के सम्बन्ध में महापंडित राहुल सांकृत्यायन का कथन दृष्टव्य है—“एक जगह (काबुल के संग्राहलय में) पचासों स्त्री-मूर्तियों के सिर रखे थे। उनमें पचासों प्रकार से केशों को सजाया गया था, और कुछ सजाने के ढंग तो इतने आकर्षक और बारीक थे कि मोशिये मोनिये (फ्रांसीसी राजदूत) कह रहे थे कि इनके चरणों में बैठ कर पेरिस की सुन्दरियाँ भी बाल का फैशन सीखने के लिये बड़े उल्लास से तैयार होंगी।" किन्तु पवाया में प्राप्त ये मृणमूर्तियाँ इन दोनों स्थानों पर प्राप्त मृण्मूर्तियों से कहीं अधिक उत्कृष्ट हैं । इसका एकमात्र कारण यही प्रतीत होता है कि पद्मावती तत्कालीन भारत का प्रमुख सांस्कृतिक केन्द्र थी जहाँ संस्कृतियों का समागम होता था।
देवी-देवताओं की मूर्तियों के अन्तर्गत एक मूर्ति चतुर्भुज ब्रह्मा की बहुत सुन्दर बन पड़ी है । किसी सिंहवाहनी देवी (पार्वती) का नीचे का भी भाग मिला है। पशुओं में अश्वों की मूर्तियाँ बड़ी सजीव बन पड़ी हैं। किसी-किसी घोड़े पर सवार भी अकित किया गया है। भारतीय मूर्तिकला में हाथी के अंकन को विशेष महत्व मिला है किन्तु पद्मावती में अश्वों के चित्रों को देख कर भारतीय चित्रकला के सम्बन्ध में यह भ्रान्ति कि उसमें हाथी को विशेष महत्व मिला है, बहुत कुछ अंश में असिद्ध हो जाती है । पशु-पक्षियों में विशेषकर तोता, कपोत, मोर, मछली, वराह और वानर की मूर्तियाँ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । एक ऐसे वानर की मूर्ति भी मिली है, जो गले में माला डाले हुए है । इस मूर्ति को देख कर कुषाणकालीन उस कच्छप जातक का सहज ही स्मरण हो आता है, जो मथुरा संग्रहालय मे है और जिसका उल्लेख डॉ. कृष्णदत्त वाजपेयी ने अपनी 'मथुरा' नामक पुस्तक में किया है।
पद्मावती में प्राप्त मृणमूर्तियों की तुलना मथुरा संग्रहालय की मृण्मूर्तियों से की जा सकती है । जिस प्रकार मथुरा-कला में विविध धर्मों के देवी-देवताओं की मूर्तियाँ मिली हैं वैसी ही मूर्तियाँ पद्मावती में भी प्राप्त हुई हैं। इन मूर्तियों का सम्बन्ध प्रधान रूप से लोकजीवन से है । देवी-देवता भी विशेषकर हिन्दू-धर्म के हैं। साथ ही ग्रामीण और लोकजीवन पर प्रकाश डालने वाली अनेक मूर्तियाँ मिली हैं। इसका कारण यही है कि जीवन का यह पक्ष जनसाधारण के लिए बड़ा बोधगम्य था। मथुरा में इस प्रकार की मूर्तियों के प्राप्ति स्थान या तो टीले हैं अथवा यमुना नदी । रचना-कौशल के आधार पर इन मूर्तियों को दो वर्गों में रखा जा सकता है । पहले वर्ग में देवी-देवताओं की वे प्राचीन मूर्तियाँ
१. 'सोवियत भूमि', पृष्ठ ७४७ का कथन-मध्य भारत का इतिहास पृष्ठ ६३३-३४
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