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४६ : पद्मावती
मानवाकार नन्दी की कल्पना एक मौलिक कल्पना है । वृष, साँड़, नन्दी अथवा बैल को मानवीय आकृति द्वारा . कट करने का तात्पर्य है, शिव के इस वाहन को मानव मान कर उसकी उपासना करना । ऐसी स्थिति में जब नागवंशीय शासक स्वयं को शिव का नन्दी समझते हों, नन्दी को इस रूप में अभिव्यक्त करना और भी युक्तिसंगत प्रतीत होता है।
नन्दी को मानव के रूप में चित्रित करने का अर्थ होगा इस प्राणी में सभी मानवीय गुणों का आरोप करना ! प्राणियों में मानव की कल्पना एक मानवोचित गुण है । नन्दी मानव की उसी प्रकार सहायता करने वाला प्राणी बन जाता है जिस प्रकार कोई मनुष्य कर सकता हो । उसमें मानव के ही नहीं उसके स्वामी शिव के गुणों का भी समावेश हो जाता है । नन्दी मानव है । उसे मानव के सभी दुःख दर्दो का आभास होगा। नन्दी को मानव के रूप में चित्रित करने में यह भावना अवश्य बनी रही होगी।
___ तत्कालीन धार्मिक प्रवृति की जड़ें कितनी गहरी थीं तथा उसका भावी समाज पर कितना प्रभाव पड़ा इसका अनुमान इस तथ्य के द्वारा लगाया जा सकता है कि आज भी नन्दी को एक विवेकशील प्राणी माना जाता है, जोकि व्यक्तियों के जीवन और भाग्य के सम्बन्ध में भविष्यवाणी करने में समर्थ है । इस विश्वास को जब मानवाकार नन्दी के परिप्रेक्ष्य में देखा जाता है तो नागों के द्वारा चित्रित मानवाकार नन्दी की सार्थकता का आभास हो जाता है। मानवाकार नन्दी की उपासना निराधार नहीं रही होगी। ४.५ उत्कृष्ट कलाकृतियाँ : मृण्मूर्तियाँ
पद्मावती में प्राप्त नागयुगीन मृण्मूर्तियाँ जोकि विष्णु मन्दिर में मिली हैं, मिट्टी की मूर्तियाँ बनाने की कला का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करती हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि ये मूर्तियाँ किसी साँचे में ढाली गयी होंगी। इसका अर्थ यह हुआ कि उस समय तक साँचे बनने लगे होंगे जिनका उपयोग मूर्तियों के बनाने में किया जाता होगा। ये मूर्तियाँ स्त्री-पुरुष, देवियों और पशु पक्षियों की हैं। स्त्रियों की मूर्तियों में उनका केशविन्यास विशेष रूप से उल्लेखनीय है, देखने में सभी मूर्तियाँ बड़ी मनमोहक प्रतीत होती हैं । मानव-मूर्तियों में अन्य विशेषताओं के अतिरिक्त मन के भाव मुख-मंडल पर उभर कर आ रहे हैं यह देखते ही बनता है । कुछ मूर्तियों के मुख पर हास्य का भाव सहज ही पढ़ा जा सकता है। साथ ही कुछ मूर्तियाँ शोक-संतप्त हृदय के भावों को अन्तरतम में छिपाये हुए प्रतीत होती हैं। आश्चर्य तो इस बात का है कि मिट्टी से बनी ये मूर्तियाँ मानवोचित भावों का कितना सफल चित्रण करती हैं, क्या यह विचारणीय बात नही है ? मानवोचित भावों के चित्रण में तो आज बीसवीं शताब्दी का कलाकार भी, यदि वह पारंगत नहीं है तो चकरा जायेगा । पुरुषों की तुलना में स्त्री मूर्तियों में अधिक वैविध्य है । इस युग में केशविन्यास के विषय में कितना वैविध्य विद्यमान था, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। स्त्रियों के लिए यह एक विशेष सौन्दर्य प्रसाधन का युग रहा होगा।
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