Book Title: Padmavati
Author(s): Mohanlal Sharma
Publisher: Madhyapradesh Hingi Granth Academy

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Page 53
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पप्रावती की संस्थापना : ३५ यह धारणा और भी पुष्ट हो जाती है, कि किसी-न-किसी रूप में संघ-व्यवस्था रही होगी, कि सिक्के प्रचलित करने का अधिकार केवल पद्मावती को ही प्राप्त हुआ हो । यह स्वतंत्र साम्राज्य था, और नागदत्त (लाहौर वाली मुद्रा के महेश्वर नाग का पिता) का वंश भी इसी के अधीन होगा। इसके अन्तर्गत एक अन्य राजवंश राज्य करता था। बुलंदशहर जिले के इन्द्रपुर (इन्दौर खेड़ा) अथवा उसके आस-पास इस राज्य के एक शासक मत्तिल की मुद्रा पर नाग चिह्न मिला है। इस पर राजन् उपाधि अंकित नहीं मिली है। इस सम्बन्ध में इन्दौर के ताम्रलेखों ने प्रमाण प्रस्तुत किया है। ये ताम्रलेख सर्वनाग नामक शासक ने लिखवाये थे, जोकि समुद्रगुप्त का एक गवर्नर था। ____ नागदत्त, नागसेन या मत्तिल अथवा उनके पूर्वजों ने भी अपने सिक्के नहीं चलाये । भारशिवों के समय में अहिच्छत्रों के भी किसी अन्य शासक या गवर्नर ने भी अपने सिक्के नहीं चलाये । सिक्के चलाने वालों में केवल अच्युत ।। नाम आता है। समुद्रगुप्त के शिलालेख में अच्युत का नाम अच्युतनन्दी मिलता है। जितने शासकों के सिक्के नहीं मिलते, वे स्वतंत्र शासक थे या नहीं, इस विषय में निश्चयपूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता है। अनुमान लगाया जाता है कि इस प्रकार के राज्य किसी साम्राज्य की शाखा होंगे, अथवा गणराज्य की एक इकाई होंगे। सिक्कों के लिए उन्हें प्रधान राज्य के ऊपर निर्भर रहना पड़ता होगा। समुद्रगुप्त के शिलालेख में आर्यावर्त के शासकों को दो वर्गों में विभाजित किया गया है। एक वर्ग का प्रारम्भ गणपति नाग से होता है। इस वर्ग में उन शासकों की सूची दी गयी है, जो समुद्रगुप्त के प्रथम आर्यावर्त युद्ध में मारे गये थे। दूसरे वर्ग में उन शासकों के नाम हैं जिन पर युद्ध के समय आक्रमण हुआ था। इस सूची का प्रारम्भ रुद्रदेव अर्थात् रुद्रसेन से होता है। इन दोनों शाखाओं के अतिरिक्त भारशिवों के साम्राज्य की स्वतंत्र इकाइयों के रूप में मालवा और राजपूताने और सम्भवतः पंजाब के कुणिंदों के भी गणराज्य रहे होंगे। इन राज्यों के द्वारा अपने-अपने सिक्के चलाये गये थे। इस बात में सन्देह नहीं कि जो राज्य अपने सिक्के चला रहे थे, वे स्वराज्य भोगी राज्य होंगे, किन्तु अन्य ऐसे राज्यों के साथ, जिनके स्वयं के सिक्के नहीं थे, उनके सम्बन्ध कैमे थे और आर्थिक व्यवस्था में वे कैसे सम्पर्क स्थापित किये हुए थे, इस सम्बन्ध में अन्तिम रूप से मत नहीं दिया जा सकता। इसका कारण उन साक्ष्यों का अभाव है, जिनके आधार पर यह स्वतंत्र रूप से कहा जा सके कि किसी राज्य विशेष की स्थिति क्या थी। इस प्रसंग में सिक्कों पर अंकित विरुद का साक्ष्य ही एक ऐसा साक्ष्य है, जिसे निर्णायक माना जा सकता है । भारशिव वंश के राजाओं के सिक्कों पर जो अधिराज शब्द मिलता है, वह इस तथ्य को प्रगट करता है कि यह साम्राज्य कई राज्यों का प्रतिनिधित्व करने वाला होना चाहिए। भारशिवों के शासन-कार्य एवं आचरण में हमें किसी प्रकार की जटिलता नहीं दिखायी देती। भारशिवों के आराध्यदेव योगी और परम त्यागी थे। उनके भक्तों ने भी १. अंधकारयुगीन भारत, पृष्ठ ६२-६३ । For Private and Personal Use Only

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