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पद्मावती के ध्वंसावशेष : ४१
उपासना से सम्बन्ध रखता हो। किन्तु इससे यह अनुमान नहीं लगाना चाहिए कि प्रारम्भ में कोई सनातनी चिह्न बने ही नहीं थे। वास्तविकता तो यह है कि बौद्धों से पूर्व भी सनातनी हिन्दू अपने स्मृति-चिह्न बनवाया करते थे । इन स्मृति-चिह्नों में भवन और मूर्तियों की गणना विशेष रूप से की जा सकती है। किन्तु पवाया के उत्खनन कार्य के समय बौद्धों से पूर्व का सनातनी हिन्दुओं का कोई स्मृति-चिह्न नहीं मिला, न ही कोई नमूना वास्तु तक्षणकला का मिलता है। इस सम्बन्ध में अधिक सम्भावना तो इसी बात की प्रतीत होती है कि हिन्दुओं ने ऐसे स्मृति-चिन्ह बनवाये तो होंगे किन्तु कालान्तर में उन्हें नष्ट कर दिया गया होगा। सनातनी हिन्दुओं के भवन, मूर्ति तथा अन्य स्मृति-चिन्हों के निर्माण किये जाने के प्रमाण तो हमें कई पुस्तकों में प्राप्त होते हैं । इस सम्बन्ध में श्री वृन्दावन भट्टाचार्य को पुस्तक 'दि हिन्दू इमेजेज' विशेष रूप से उल्लेखनीय है । मन्दिर और देवी-देवताओं की मूर्तियों के निर्माण के सम्बन्ध में हमें मत्स्य पुराण से भी प्रमाण मिल जाते हैं । भारशिवों और कुषाणों से पूर्व ही सनातनी और हिन्दुओं की वास्तु कला तथा मूर्ति कला उन्नति के उच्च शिखर पर पहुँच गयी थी। इस कला का राष्ट्रीय स्वरूप भी था। किन्तु यह भी स्मरण रखने योग्य है कि भारशिव और वाकाटकों के समय में उनका फिर से उद्धार होने लगा तो फिर वैसे अच्छे भवन नहीं बन पाये । प्राचीन भवनों की तुलना में ये घटिया प्रकार के सिद्ध हुए । बौद्धों और जैनों के स्तूपों आदि पर की नक्काशी से यह सिद्ध हो जाता है कि इन पर भारतीय वास्तु और मूर्ति कला का अत्यधिक प्रभाव है। उदाहरण के लिए बौद्ध और जैन स्तूगों आदि पर की गई नक्काशी में अप्सराओं के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता था। मथुरा के जैन स्तूपों पर नागार्जुनी कोंडा स्तूपों तथा इसी प्रकार के और अनेक भवनों आदि पर ऐसी मूर्तियाँ मिलती हैं जिनमें अप्सरायें अपने प्रेमी गंधों के साथ अनेक प्रकार की प्रेम-क्रीड़ा करती दिखायी गयी हैं । अप्सराओं की प्रेम-कीड़ा को जैन
और बौद्ध धर्म में कोई स्थान नहीं है। हाँ, हिन्दुओं की धर्म पुस्तकों में और विशेष कर मत्स्य पुराण में इनको विशेष स्थान मिला है। मत्स्य पुराण में अठारह आचार्यों के मत उद्धृत किये गये हैं । इससे इस बात का पता लगाया जा सकता है कि हिन्दुओं में यह प्रथा अति प्राचीन काल से चली आ रही थी । हिन्दुओं के मन्दिर और तोरणों पर गंधर्वमिथुन या गंधर्व और उसकी पत्नी की मूर्तियाँ होनी चाहिए। इस विषयक मत्स्य पुराण का उल्लेख देखिये :
तोरणान् चोपरिष्टात् तु विद्याधर समन्वितम् देव दुन्दुभि-संयुक्त गंधर्व मिथुनान्वितम् ।
मत्स्य पुराण २५७, १३-१४ मन्दिरों पर अप्सराओं, सिद्धों और यक्षों आदि की मूर्तियाँ नकाशी गयी होंगी। मथुरा में भी स्नान करती हुई स्त्रियों की अनेक मूर्तियाँ मिली हैं। यह अनुमान लगान : अस्वाभाविक नहीं कि इन मूर्तियों की अनेक बातें अप्सराओं की-सी हैं तथा स्नान करने की भाव-भंगिमा के कारण ये जल-अप्सरा-सी प्रतीत होती हैं । बौद्ध और जैनों की गजलक्ष्मी
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