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४२ : पद्मावती
और गरुड़ ध्वज धारण करने वाली वैष्णवी भी सनातनी हिन्दू इमारतों से ली गयी हैं। जैन और बौद्ध मन्दिरों में इन मूर्तियों के आ जाने का एकमात्र कारण यही प्रतीत होता है कि कलाकार इनको बनाने के इतने इच्छुक हो गये थे कि वे इन्हें यथासम्भव स्थान देने का लोभ संवरण नहीं कर सकते थे। एक दूसरी बात और, जिस समय जैनों और बौद्धों के ये मन्दिर बने उस समय इन मूर्तियों का इतना अधिक प्रचार हो गया था कि कोई भी भवन तब तक पवित्र नहीं समझा जाता था जब तक कि उनमें इन मूर्तियों का समावेश न हो जाय । हिन्दुओं के लिए तो ये मूर्तियाँ वैदिक युग से चली आ रही थीं। ४.३ मारिणभद्र यक्ष
पवाया में प्राप्त मानवाकार मूर्तियों में माणिभद्र यक्ष की मूर्ति विशेष रूप से उल्लेखनीय है । यह मूर्ति पवाया के निकट किले के मुख्य द्वार के समीप ही एक खेत में पड़ी मिली थी। बताया जाता है कि इसे किसी किसान के हल ने पलट दिया था। यह मूर्ति बलुए पत्थर की बनी है। इसे माणिभद्र यक्ष के उपासकों ने बनवाया था। विशाल मूर्ति गोल आधार पर खड़ी की गयी है । इसके पैर से गर्दन तक की ऊंचाई चार फुट दस इंच है । मूर्ति का सिर अभी तक उपलब्ध नहीं हो सका है। इसके अतिरिक्त भी मूर्ति कई स्थानों से खंडित हो गयी है । दाहिना हाथ केवल कुहनी तक है, शेष टूटा है और अप्राप्य है । हाथ की जैसी आकृति बनायी गयी है उससे एक बात स्पष्ट हो जाती है कि दाहिना हाथ कुहनी तक मुड़ा हुआ था, बाँया हाथ नीचे लटक रहा है, इसी में कोष की थैली है । यक्ष संपत्ति और समृद्धि के अधिष्ठाता थे। माणिभद्र यक्ष भी धन-धान्य के भण्डारी के रूप में प्रतिस्थापित किये गये थे।
माणिभद्र यक्ष की मूर्ति तत्कालीन मूर्तिकला का एक उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करती है। मूर्तिकला की उत्कृष्टता को दर्शाने वाले सूक्ष्मतम चिह्नों में यक्ष की ग्रीवा के चारों ओर के चर्म को प्रदर्शित करने वाली रेखाओं को लिया जा सकता है । चर्म का एक दूसरा लपेट छाती पर भी बताया गया है । माणिभद्र यक्ष की पोशाक तत्कालीन वेशभूषा का एक उदाहरण प्रस्तुत करती है । यक्ष धोती और उत्तरीय पहने है। उसका दूसरा वस्त्र हैं अंगोछा । बंडी की निचाई तो घुटने तक आती है और कमर पर साधारण पट्टी की गाँठ जैसी लगी प्रतीत होती है। कपड़े की लपेट दोनों टाँगों के बीच में हो कर जाती है । इसको आगे और पीछे दोनों ओर से देखा जा सकता है। चित्र में यक्ष के आगे का और पीछे का दोनों ओर का भाग दिखाया गया है। अंगोछा अथवा जिसे उत्तरीय भी कहा जा सकता है, का एक छोर तो दाहिनी भुजा पर लपेटा गया है । दूसरा छोर पर्तों में पीछे लटक रहा है । मूर्तिकला की सूक्ष्मता तो इस बात में है कि वस्त्रों के साथ-साथ यक्ष के यज्ञोपवीत पहनने के चिन्ह भी स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहे हैं। यज्ञोपवीत छाती के दाहिने भाग से पेट के बाँये भाग तक पहुँच रहा है। साथ ही मूर्ति आभूषण रहित भी नहीं है । गले में एक हार है । ऐसा प्रतीत होता है कि उसमें मोती गुंथे हुए हैं । यह पीछे की ओर भी लटकता हुआ दीख रहा है । दाहिनी भुजा में भुजबन्द
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