________________ प्रस्तावना अर्थात्-" यह बड़े अचरज की बात है कि अनन्तवीर्य-अनन्तशक्तिशाली भी अकलङ्कदेव के प्रकरण को पूरी तरह व्यक्त करना नहीं जानता।" इसी तरह आचार्य विद्यानन्द ने भी अकलङ्क के प्रकरणों को अनुपम बतलाया है। ____ अकलङ्कदेव की रचनाएँ दो प्रकार की हैं, एक पूर्वाचार्यों के ग्रन्थों पर भाष्यरूप और दूसरी स्वतंत्र / प्रथम प्रकार की रचनाओं में दो ग्रन्थ हैं एक तत्त्वार्थराजवार्तिक और दूसरा अष्टशती, तथा द्वितीयप्रकार की रचनाओं में लघीयस्त्रय, न्यायविनिश्चय, सिद्धिविनिश्चय, प्रमाणसंग्रह, स्वरूपसम्बोधन, वृहत्त्रय, न्यायचूलिका, अकलंकस्तोत्र, अकलङ्कप्रायश्चित्त, और अकलङ्कप्रतिष्ठापाठ ये दस ग्रन्थ सम्मिलित किये जाते हैं। इन ग्रन्थों के अकलङ्करचित होने की विवेचना और उनका संक्षिप्त परिचय नीचे क्रमशः दिया जाता है। तत्त्वार्थराजबार्तिक ( सभाष्य )-उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्रों के दो पाठ प्रचलित हैं, उनमें से एक पाठ दिगम्बरजैनों में प्रचलित है और दूसरा श्वेताम्बरजैनों में / दिगम्बरपाठ के आधार पर इस ग्रन्थराज की रचना की गई है / सप्त तत्त्वों का वर्णन होने के कारण उक्त सूत्रग्रन्थ 'तत्त्वार्थ' के नाम से प्रसिद्ध है। महत्ता और गाम्भीर्य की दृष्टि से उसे तत्त्वार्थराज के आदरणीय नाम से भी पुकारा जाता है। इसी से प्रकृत वार्तिकग्रन्थ को तत्त्वार्थवार्तिक और तत्त्वार्थराजवार्तिक कहा जाता है। पहले की अपेक्षा दूसरा नाम अधिक व्यवहृत है और उसका 'तत्त्वार्थ' पद उड़ाकर केवल 'राजवार्तिक' नाम रूढ़ होगया है। तत्त्वार्थसूत्र की उपलब्ध आघटीका पूज्यपाद देवनन्दि की सर्वार्थसिद्धि है। वार्तिककार ने इस टीका का न केवल अनुसरण ही किया है किन्तु उसकी अधिकांश पंक्तियों को अपनी वार्तिक बना लिया है / वार्तिक के साथ उसकी व्याख्या भी है। ग्रन्थकारों ने दोनों का पृथक् पृथक् उल्लेख किया है। उद्योतकर के न्यायवार्तिक और उसकी व्याख्या की तरह दोनों एककर्तृक ही प्रसिद्ध हैं। मूलप्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र दस अध्यायों में विभक्त है अतः राजवार्तिक में भी दस ही अध्याय हैं किन्तु न्यायवार्तिक की तरह ही प्रत्येक अध्याय को आहिकों में विभक्त कर दिया गया है। इससे पहले जैनसाहित्य में अध्याय के आह्निकों में विभाजन करने की पद्धति नहीं पाई जाती। यह ग्रन्थ भारतीय जैनसिद्धान्तप्रकाशिनी संस्था से प्रकाशित होचुका है। उसमें 'जीयाचिर मकलङ्कब्रह्मा' आदि श्लोक को छोड़कर कहीं भी ग्रन्थकार का नाम नहीं आता। अभी तक * केवल परम्भरा और प्रौढ़ शैली के आधार पर ही इसे अकलङ्कदेवरचित माना जाता था किन्तु सिद्धिविनिश्चय की टीका के एक उल्लेख पर से अब इसके प्रसिद्ध अकलङ्कदेवरचित होने में कोई सन्देह शेष नहीं रह जाता। ____ अकलङ्क के अन्य ग्रन्थों की तरह इसकी शैली भी अतिप्रौढ़ और गहन है। वार्तिक तो प्रायः सरल और संक्षिप्त हैं किन्तु उनका व्याख्यान इतना जटिल है कि उसको विशद करने के लिये न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका की कोटि की एक टीका का अभाव पद पद पर अखरता है / अकलङ्क के अन्य ग्रन्थों के अवलोकन करने से पाठक के मानस पर उनके केवल प्रौढ़ दार्शनिकरूप का ही चित्रण होता है किन्तु इस ग्रन्थ में उसे उनकी त्रिमूर्ति-दार्शनिक सैद्धान्तिक और वैयाकरण के दर्शन होते हैं। उनका बहुश्रुतत्व और सर्वाङ्गीण पाण्डित्य इसी एक प्रन्थ से प्रकट 1 न्यायदीपिका में 'यद्राजवार्तिकम्। और भाष्य ञ्च करके दोनों का पृथक् पृथक् उल्लेख किया है। 2" सूरिणा अकलकेन वार्तिककारेण"" पृ० 254 पू० /