________________ प्रस्तावना 121 महापुराण का जो प्रथमखण्ड इसी ग्रन्थमाला से प्रकाशित हुआ है, उस की प्रस्तावना में प्रभाचन्द्र के टिप्पण की जयपुरवाली प्रति से एक अन्तिम वाक्य उद्धृत किया है, जो इस प्रकार है-“श्री विक्रमादित्यसंवत्सरे वर्षाणामशीत्यधिकसहस्रे महापुराणविषमपदविवरणं सागरसेनसैद्धान्तान् परिज्ञाय मूलटिप्पणकांचालोक्य कृतमिदंसमुच्चयटिप्पणंअज्ञपातभीतेन श्रीमद्बला'.. रगण श्रीसंघाचार्यसत्कविशिष्येण श्रीचन्द्रमुनिना निजदोर्दण्डाभिभूतरिपुराज्यविजयिनः श्री भोजदेवस्य // 102 // इति उत्तरपुराणटिप्पणकं प्रभाचन्द्राचार्यविरचितं समाप्तम् / " इसमें लिखा है कि भोजदेव के राज्य में विक्रम सम्वत् 1080 ( ई० 1023 ) में चन्द्रमुनि ने यह टिप्पण रचा था। श्रीयुत वैद्य ने इस लेख को प्रमाण मानकर इसका रचनाकाल ई० 1023 ही स्वीकार किया है। इस उल्लेख की प्रामाणिकता पर विश्वास करके रत्नकरंड की प्रस्तावना में उद्धृत उक्त. प्रशस्ति का अन्तिम वाक्य 'श्रीजयसिंहदेव राज्ये..' आदि ठीक नहीं जान पड़ता, क्यों कि भोजदेव की मृत्यु के बाद ई० 1056-57 में जयसिंह मालवा के सिंहासन पर बैठा था। यहाँ हुम इस अन्तिम वाक्य के सम्बन्ध में विचार करेंगे, क्यों कि प्रमेयकमलमार्तण्ड की मुद्रित प्रति के अन्त में तथा न्यायकुमुदचन्द्र को भा० और श्र० प्रति के अन्त में भी इसी प्रकार के वाक्य मिलते हैं। केवल इतना अन्तर है कि मार्तण्ड में 'श्री भोजदेवराज्ये परीक्षामुखपदमिदं विवृतम्' लिखा है तथा न्यायकुमुद में 'श्री जयसिंहदेव राज्ये 'न्यायकुमुदचन्द्रो लघीयखयालङ्कारः कृत इति मङ्गलम्' लिखा है। न्यायकुमुदचन्द्र के आरम्भिक श्लोकों से स्पष्ट है कि प्रमेयकमल की रचना के बाद न्यायकुमुद की रचना की गई है / अतः पहले की रचना भोजदेव के समय में और दूसरे की उसके उत्तराधिकारी जयसिंहदेव के समय में हुई, इस प्रकार ऐतिहासिक क्रम भी ठीक ठीक बैठ जाता है। पहले प्रमेयकमल० और न्यायकुमुद० के कर्ता प्रभाचन्द्र का समय ईस्वी आठवीं शताब्दी का उत्तरार्ध और नवमी का पूर्वार्ध माना जाता था अतः पं० जुगुलकिशोर जी मुख्तार ने प्रमेयकमल० के अन्तिम वाक्य को उसके टीका-टिप्पणकार का बतलाया था। किन्तु विचार करने पर प्रभाचन्द्र ईसा की दसवीं शताब्दी से पहले के विद्वान प्रमाणित नहीं होते अतः उक्त वाक्यों को टीका-टिप्पणकार का भी कहकर नहीं टाला जा सकता। तब क्या ये वाक्य स्वयं प्रभाचन्द्र के हैं ? यदि ऐसा हो तो वे धारा के भोज और उसके उतराधिकारी जयसिंह के समकालीन प्रमाणित होते हैं। इस प्रश्न पर विचार करने के लिये हमें पुनः महापुराण के प्रभाचन्द्रकृत टिप्पण के प्रशस्ति श्लोकों पर दृष्टिपात करना होगा। न्यायकुमुद० और प्रमेयकमल० के आदि और अन्त के श्लोकों के साथ टिप्पण के प्रशस्तिश्लोकों का मिलान करने पर यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि टिप्पणकार ने अपने प्रशस्तिश्लोकों को उक्तग्रन्थ के श्लोकों की छाया में बैठकर बनाया है, उन्होंने किसी श्लोक का कोई पद और किसी श्लोक का कोई पद लेकर उक्त श्लोकों को रचना की है। दो श्लोकों की आठ पंक्तियों में से प्रायः एक भी पंक्ति ऐसी नहीं है, जिसमें एक आधा पद प्रमेयकमल या न्यायकुमुद के श्लोकों से न लिया गया हो / स्पष्टीकरण के लिये-दूसरी पंक्ति का 'यातन्तेन समस्तवस्तुविषयम्' पद न्या० कु० के प्रारम्भ के श्लोक 5 वें के 'जातस्तेन समस्तवस्तुविषयं व्याख्यायते तत्पदम् ' से लिया गया है। चौथी पंक्ति "भूयाच्चेतसि धीमतामतितरां चंद्रार्कतारावधि" प्रमेयकमल० की प्रशस्ति के श्लोक के "स्थेयाच्छुद्धधियां मनोरतिगृहे चन्द्रार्कतारावधि" पद 1 प्रो. हीरालालजी से ज्ञात हुआ है कि जयपुर की उक्त प्रति में उक्त प्रशस्तिश्लोक नहीं हैं। .