________________ प्रस्तावना प्रत्यक्ष और सकलप्रत्यक्ष के स्थान में 'सांव्यवहारिकप्रत्यक्ष और मुख्यप्रत्यक्ष इस प्रकार दो भेद किये, और इन्द्रिय और मन की सहायता से होनेवाले मतिज्ञान को परोक्ष की परिधि में से निकाल कर और सांव्यवहारिकप्रत्यक्ष नाम देकर प्रत्यक्ष की परिधि में सम्मिलित कर दिया। इस परिवर्तन से प्राचीन परम्परा को भी कोई क्षति नहीं पहुँची और विपक्षी दार्शनिकों को भी क्षोदक्षेम करने का स्थान नहीं रहा, क्योंकि प्राचीन परम्परा इन्द्रियसापेक्ष ज्ञान को परोक्ष कहती थी और इतर दार्शनिक उसे प्रत्यक्ष कहते थे। किन्तु उसे सांव्यवहारिक अर्थात् पारमार्थिक नहीं किन्तु लौकिकप्रत्यक्ष नाम दे देने से न तो जैनाचार्यों को ही कोई आपत्ति हो सकती थी क्योंकि परिभाषा और उसके मूल में जो दृष्टि थी वह सुरक्षित रखी गई थी, और न विपक्षी दार्शनिक ही कुछ कह सकते थे क्योंकि नाम में ही विवाद था, प्रत्यक्ष नाम देदेने से वह विवाद जाता रहा। मति को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष मान लेने पर उसके सहयोगी स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध प्रमाण भी सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष में ही अन्तर्भूत कर लिये गये। किन्तु इन सहयोगी प्रमाणों में मन की प्रधानता होने के कारण सांव्यवहारिकप्रत्यक्ष के दो भेद किये गये एक इन्द्रियप्रत्यक्ष और दूसरा अनिन्द्रियप्रत्यक्ष। इन्द्रियप्रत्यक्ष में मति को स्थान मिला और अनिन्द्रिय में स्मृति आदिक को / परसापेक्ष ज्ञान को प्रत्यक्ष की परिधि में सम्मिलित कर लेने से प्रत्यक्ष की परिभाषा में भी परिवर्तन करने की आवश्यकता प्रतीत हुई अतः उसकी आगमिक परिभाषा के स्थान में अति संक्षिप्त और स्पष्ट परिभाषा निर्धारित की-पष्ट ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं / ___मति स्मृति आदि प्रमाणों को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष बतलाते हुए अकलंकदेव ने लिखा है। कि मति आदि प्रमाण तभी तक सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष हैं, जब तक उनमें शब्दयोजना नहीं की जाती। शब्दयोजनासापेक्ष होने पर वे परोक्ष हो कहें जायेंगे और उस अवस्था में वे श्रुतज्ञान के भेद होंगे। इस मन्तव्य से प्रमाणों की दिशा में एक नवीन प्रकाश पड़ता है और उसके उजाले में कई रहस्य स्पष्ट हो जाते हैं। अतः उनके स्पष्टीकरण के लिये ऐतिहासिक पर्यवेक्षण करना आवश्यक है। गौतम ने अनुमान के-स्वार्थ और परार्थ-दो भेद किये थे, किन्तु उद्योतकर से पहले नैयायिक किसी व्यक्ति को ज्ञान कराने के लिये परार्थानुमान की उपयोगिता नहीं मानते थे। दिङ्नाग ने दोनों भेदों का ठीक ठीक अर्थ करके सबसे पहले स्वार्थानुमान और परार्थानुमान के मध्य में भेद की रेखा खड़ी की। दिवाकरजी ने परार्थानुमान को जैन न्याय में स्थान तो दिया किन्तु 1 "प्रत्यक्षं विशदं ज्ञानं मुख्यसांव्यवहारिकम् / परोक्ष शेषविज्ञानं प्रमाण इति संग्रहः ॥३॥"लघीयस्त्रय 1 "आये परोक्षमपरं प्रत्यक्ष प्राहुराजसा / केवलं लोकबुद्धयैव मतेर्लक्षणसंग्रहः // " न्या० वि० / 3 “मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताऽभिनिबोध इत्यनान्तरम् // " तत्त्वार्थसूत्र 4 "तत्र सांव्यवहारिक इन्द्रियानिन्द्रियप्रत्यक्षम् / " लघी. वि. कारि० 4 / 5 “अनिन्द्रिय प्रत्यक्षं स्मृतिसंज्ञाचिन्ताभिनिबोधात्मकम् // " लघी. वि. का.६१ / "ज्ञानमाद्यं मतिः संज्ञा चिन्ता चाभिनिबोधनम् / प्राङनामयोजनाच्छेषं श्रुतं शब्दानुयोजनात् // कघीयत्रय 7 देखो, प्रो. चिरविटस्की का 'बुद्धिस्ट लॉजिक'।