________________ प्रस्तावना 107 आधी शताब्दी बाद अपना प्रवास-वृत्त लिखा है, वह लिखता है कि भारतवर्ष के पांचों खण्डों में भर्तृहरि एक प्रख्यात वैयाकरण के रूप में प्रसिद्ध हैं / इस विवेचन से हम ऐसा निर्णय कर सकते हैं कि जिस वर्ष में तंत्रवार्तिक की रचना हुई उसके और भर्तृहरि की मृत्युवाले ई० 650 के बीच में आधी शताब्दी बीत चुकी होगी। अतएव कुमारिल ई० स० की 8 वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में विद्यमान होने चाहिये ___ यहां यह बतला देना आवश्यक है कि डाक्टर पाठक ने यह लेख उस लेख से बहुत पहले लिखा था जिसमें उन्होंने अकलंक और कुमारिल को आठवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध का विद्वान बतलाया था। इस लेख में डाक्टर पाठक ने जिस सिद्धान्त का आविष्कार किया है वह एक अजीब ही वस्तु प्रतीत होता है / प्रथम तो किसी व्यक्ति की प्रसिद्धि के लिये उसकी मृत्यु के पश्चात् आधी शताब्दी बीतना कोई आवश्यक नियम नहीं है / आज की तरह प्राचीन समय में भी विद्वान अपने जीवनकाल में ही ख्यात हो जाते थे। यदि थोड़ी देर के लिये यह बात स्वीकार भी कर ली जाये तो प्रसिद्ध विद्वानों का ही खण्डन किये जाने का कोई नियम नहीं है। हरिभद्रसूरि ने अपने समकालीन विद्वान शान्तरक्षित, प्रज्ञाकर और धर्मोत्तर के मत की आलोचना की है। विद्वानों की लेखनी का निशाना बनने के लिये केवल प्रसिद्धि ही आवश्यक नहीं है। किसी अप्रसिद्ध विद्वान की भी कृति में यदि कोई मौलिक विचारधारा हो, जो पाठक को अपनी ओर आकर्षित कर सकती हो, तो प्रतिपक्षी समर्थ विद्वान उसकी आलोचना किये बिना नहीं रह सकता / हुएन्सांग के समय में भर्तृहरि की उतनी ख्याति न होगी, जितनी इत्सिंग के समय में थी / किन्तु उनकी कृति में कुमारिल को कुछ मौलिकता अवश्य प्रतीत हुई होगी। इसी से उन्होंने प्राचीन वैयाकरणों के साथ साथ भतृहरि की भी आलोचना करना उचित समझा / अतः वाक्यपदीय की आलोचना करने के कारण, भर्तृहरि और कुमारिल को विभिन्न समय में रखने की आवश्यकता नहीं है / और इसलिये भर्तृहरि और कुमारिल के आलोचक अकलंक को भी सातवीं शताब्दी के मध्य का विद्वान मानने में कोई बाधा प्रतीत नहीं होती। धर्मकीर्ति और कुमारिल के सम्बन्ध में एक किंवदन्ती प्रसिद्ध है / जब धर्मकीर्ति पढ़ लिखकर विद्वान हुए तो उन्होंने प्रसिद्ध मीमांसक कुमारिल की बहुत ख्याति सुनी / फलतः मीमांसाशास्त्र का रहस्य जानने के लिये उन्होंने कुमारिल की सेवा करना स्वीकार किया और अपनी सेवा से गुरु और गुरुपनो को प्रसन्न करके उनके कृपाभाजन बन गये। इस प्रकार मीमांसाशास्त्र में पारङ्गत होने के पश्चात् धर्मकीर्ति ने शास्त्रार्थ के लिये कुमारिल को ललकारा और शास्त्रार्थ में हारकर कुमारिल अपने पांचसौ शिष्यों के साथ बौद्धधर्म में दीक्षित हो गये। इस किंवदन्ती के सम्बन्ध में डाक्टर पाठक 'अकलंक को समय' शीर्षक अपने निबन्ध में लिखते हैं"The date of 37707 is so firmly fixed that it is impossible to assign his critic if to the first or second half of the seventh century in order to make him embrace Buddhism with his 500 followers or to make him the teacher of Bhavabhuti". अर्थात्-"अकलंक का समय इतना सुनिश्चित है कि उसके आलोचक कुमारिल को सातवीं शताब्दी के पूर्वार्ध या उत्तरार्ध का विद्वान नहीं माना जा सकता है और इसलिये कुमारिल का 1 भण्डारकर प्रा० वि० मन्दिर पूना की पत्रिका, जिल्द 13, पृ० 157 पर मुदित /