________________ 116 न्यायकुमुदचन्द्र तच्छिष्यानिखिलप्रबोधजननं तत्त्वार्थवृत्तेः पदं सुव्यक्तं परमागमार्थविषयं जातं प्रभाचन्द्रतः // 1 // श्रीपद्मनन्दिसैद्धान्तशिष्योऽनेकगुणालयः / प्रभाचन्द्रश्चिरं जायात् पादपूज्यपदे रतः // 2 // मुनीन्दुर्नन्दितादिन्दनिजमानन्दमन्दिरम् / सुधाधारोद्गिरन् मूर्तिः काममामोदयज्जनम् // 3 // " श्रवणबेलगोला के शिलालेख नं. 40 (64) में अविद्धकर्ण पद्मनन्दि सैद्धान्तिक के शिष्य और कुलभूषण के सधर्मा एक प्रभाचन्द्र का उल्लेख है, जो शब्दाम्भोरुहभास्कर और प्रथित तग्रन्थकार थे। शिमोगा जिले से मिले हुए नगर ताल्लुके के 46 3 नम्बर के शिलालेख में एक पद्य निम्न प्रकार पाया जाता है "सुखि 'न्यायकुमुदचन्द्रोदयकृते नमः। शाकटायनकृत्सूत्रन्यासकरें व्रतीन्दवे // " इसमें न्यायकुमुदचन्द्रोदय के कर्ता को शाकटायनसूत्रन्यास का कर्ता बतलाया है। इस न्यास ग्रन्थ का कुछ भाग उपलब्ध है किन्तु उस पर से उसके रचयिता के बारे में कुछ मालूम नहीं होता। किंवदन्ती है कि यह न्यास तथा जैनेन्द्रव्याकरण का शब्दम्भोजभास्कर नाम का महान्यास न्यायकुमुदचन्द्र के रचयिता का ही बनाया हुआ है और शाकटायनन्यास की शैली आदि पर से उसका आभास सा भी होता है। श्रवणबेलगोला के उक्त शिलालेख में प्रभाचन्द्र के गुरु का नाम पद्मनन्दि सैद्धान्तिक बतलाया है और उन्हें शब्दाम्भोरुहभास्कर (जैनेन्द्रव्याकरण के न्यास का नाम ) तथा प्रसिद्ध न्यायग्रन्थों के रचयिता लिखा है / अतः उन प्रभाचन्द्र और न्यायकुमुदचन्द्र के रचयिता प्रभाचन्द्र के एक ही व्यक्ति होने में किसी प्रकार के सन्देह की संभावना नहीं जान पड़ती। मुख्तार सा० प्रमेयकमलमार्तण्ड की प्रशस्ति के 'श्री पद्मनन्दिसैद्धान्तशिष्यो' आदि श्लोक को और उसके बाद की 'श्री भोजदेवराज्ये' आदि पंक्ति को प्रमेयकमलमार्तण्ड के टीकापाठ है, तत्त्वार्थवृत्ति में उसके स्थान पर 'पूज्यपादपदे रतः। पाठ किया गया है, जो इस बात को प्रमाणित करता है कि प्रभाचन्द्र ने ही तत् तत् ग्रन्थकार में अपनी श्रद्धा और भक्ति प्रकट करने के लिये ऐसा लिखा है / किसी टिप्पण या टीकाकार के द्वारा इस प्रकार के लेख की संभावना नहीं की जा सकती। मुख्तार सा. की दूसरो आपत्ति यह है कि न्यायकुमुदचन्द्र में इस तरह के श्लोक नहीं हैं / निस्सन्देह, इस प्रकार के युगल श्लोक न्यायकुमुदचन्द्र में नहीं है, किन्तु अन्य प्रकार का एक श्लोक मौजूद है जिसमें विशेषणरूप से प्रभाचन्द्र की जयकामना की गई है। शेष रह जाता है 'रत्ननन्दिपदे रतः' या 'पूज्यपादपदे रतः' वाला श्लोक, सो 'अकलंकमार्गनिरतात् / पद देकर उसकी भी पूर्ति कर दी गई है। अतः दोनों ग्रन्थों के अन्तिम श्लोकयुगल को प्रभाचन्द्र की ही कृति समझना चाहिये / 1 "अविद्धकादिकपद्मनन्दिसैद्धान्तिकाख्योऽजनि यस्य लोके / कौमारदेवब्रतिताप्रसिद्धि यातु सो ज्ञाननिधिस्स धीरः // 15 // तच्छिष्यः कुलभूषणाख्ययतिपश्चारित्रवारानिधिःसिद्धान्ताम्बुधिपारगो नतविनेयस्तसधर्मों महान् / शब्दाम्भोरुहभास्करः प्रथिततर्कग्रन्थकारः प्रभाचन्द्राख्यो मुनिराजपण्डितवरः श्री कुण्डकुन्दान्वयः // 16 // " जैनशि० संग्रह, पृ०२६।२ रत्नकरंडश्रावकाचार की प्रस्तावना (मा० प्र० मा०) पृ० 58 /