________________ प्रस्तावना 109 हैं कि धर्मकीर्ति की जो अगाध विद्वत्ता उन्हें इस बात के लिये प्रेरित करती है कि यदि धर्मकीर्ति उस समय जीवित थे तो ह्यूनत्सांग को उनका उल्लेख अवश्य करना चाहिये था, वही विद्वत्ता धर्मकीर्ति की मृत्यु मानकर ह्यूनत्सांग के उल्लेख न करने पर कैसे सन्तोष धारण करा देती है ? क्या राहुल जी यह स्वीकार करते हैं कि मृत्यु के साथ धर्मकीर्ति सरीखे प्रतिभासम्पन्न व्यक्ति की कीर्ति भी लुप्त होगई थी ? यह सत्य है कि कोई व्यक्ति समस्त विद्वानों के नाम लिखने के लिये बाध्य नहीं है। किन्तु क्या धर्मकीर्ति का व्यक्तित्व शेष समस्त विद्वानों की ही कोटि का था ? यदि ऐसा था तो राहुल जी के इस तर्क का प्रयोग धर्मकीर्ति की जीवित दशा में भी किया जा सकता है, क्योंकि नालन्दा विश्वविद्यालय में धर्मकीर्ति सरीखे स्नातकों की कमी नहीं थी / अतः राहुल जी का तर्क असङ्गत है और उसके आधार पर घनत्सांग के आने के समय धर्मकीर्ति को मृत नहीं माना जा सकता। इतिहासज्ञों का मत है कि उस समय धर्मकीर्ति तरुण थे और शिक्षा समाप्त करके कार्यक्षेत्र में अवतीर्ण हुए थे। अतः ह्यूनत्सांग ने उनका उल्लेख नहीं किया। किन्तु जब इत्सिंग भारत आया तब उनकी प्रतिभा की सर्वत्र ख्याति थी, जिसका उल्लेख इत्सिंग ने अपने यात्राविवरण में किया है। ___तथा, अकलङ्क के साहित्य पर से भी इस बात का समर्थन होता है / विद्वान पाठकों से यह बात छिपी हुई नहीं है कि धर्मकीर्ति ने अपने पूर्वज दिङ्नाग के प्रत्यक्ष के लक्षण में 'अभ्रान्त' पद को स्थान दिया था। दिङ्नाग के प्रत्यक्ष का लक्षण केवल 'कल्पनापोढ' था, धर्मकीर्ति ने उसके साथ अभ्रान्त पद और जोड़ दिया। अकलङ्क ने अपने राजेवार्तिक में दिङ्नाग के लक्षण का खण्डन किया है, तथा उस प्रकरण में जो दो कारिकाएँ उद्धृत की हैं, उनमें से एक दिङ्नाग के प्रमाणसमुच्चय की है और दूसरी वसुबन्धु के अभिधर्मकोश की। इसके अतिरिक्त उसी प्रकरण में कल्पना का लक्षण करते हुए उसके पांच भेद किये हैं। रशियन प्रो० चिरविस्को लिखते हैं कि दिङ्नाग ने कल्पना के पांच भेद किये थे-जाति, द्रव्य, गुण, क्रिया और परिभाषा। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि अकलङ्कदेव ने राजवार्तिक की रचना अपने प्रारम्भिक जीवन में की थी, उस समय तक या तो धर्मकीर्ति ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ प्रमाणवार्तिक, प्रमाणविनिश्चय आदि की रचना नहीं की थी, या वे प्रकाश में नहीं आये थे। उसके बाद के ग्रन्थों में अकलङ्क ने धर्मकीर्ति के न केवल प्रत्यक्ष के लक्षण का ही खण्डन किया है किन्तु उनके प्रसिद्धप्रन्थों से उद्धरण तक लिये हैं जैसा कि हम 'धर्मकीर्ति और अकलङ्क' शीर्षक में लिख आये हैं। अतः ह्युनत्सांग के समय में धर्मकीर्ति जीवित थे और उसी समय कुमारिल भी मौजूद थे। इस विस्तृत विवेचन के बाद भारत के इन चार प्रख्यात विद्वानों का समयक्रम इस प्रकार समझना चाहिये-भर्तृहरि ई० 590 से 650 तक, धर्मकीर्ति और कुमारिल ई० 600 से 660 तक, और अकलङ्क ई० 620 से 680 तक। १पृ०३८ / 2 "प्रत्यक्ष कल्पनापोडं नामजात्यादियोजना / असाधारणहेतुत्वादक्षस्तद्वयपदिश्यते॥१॥" "सवितर्कविचारा हि पञ्चविज्ञानधातवः / निरूपणानुस्मरणविकल्पनविकल्पकाः // 1 // " 3 बुद्धिस्ट लाजिक 2 य भाग, पृ. 272 का फुटनोट नं 9 / न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका के उल्लेख से भी यह पता चलता है कि दिङ्नाग ने कल्पना के पांच भेद किये थे। यथा-"संप्रति दिङ्नागस्य लक्षणमुपन्यस्यति दूषयितं कल्पनास्वरूपं पृच्छति अथ केयमिति ? लक्षणवादिन उत्तरं नामेति / यदृच्छाशब्देषु हि नाम्ना विशिष्टोऽर्थ उच्यते डित्थेति / जातिशब्देषु जात्या गौरयमिति / गुणशब्देषु गुणेन शुक्ल इति / क्रियाशब्देषु क्रियया पाचक इति / द्रव्यशब्देषु द्रव्येण दण्डी विषाणीति / सेब कल्पना / "