________________ प्रस्तावना 111 समकालीन विद्वान अब तक निम्नलिखित विद्वान अकलंकदेव के समकालीन कहे जाते हैं-पुष्पषेण, वादीभसिंह, कुमारसेन, कुमारनन्दिभट्टारक, वीरसेन, परवादिमल्लदेव, श्रीपाल, माणिक्यनन्दि, विद्यानन्द, अनन्तवीर्य, और प्रभाचन्द्र / किन्तु यह तालिका अकलंक को आठवीं शताब्दी का विद्वान मानकर सङ्कलित की गई है / अतः अकलंक के सातवीं शताब्दी का विद्वान प्रमाणित होने के कारण अब उसमें से अधिकांश विद्वानों का नाम खारिज कर देना होगा। नीचे उक्त विद्वानों के समय की चर्चा संक्षेप में की जाती है, जिससे ज्ञात हो सकेगा कि कौन विद्वान उनका समकालीन है और कौन उत्तरकालीन / ___ पुष्पषेण और वादीभसिंह-मल्लिषेणप्रशस्ति में अकलंकविषयक श्लोकों के बाद ही निम्नलिखित श्लोक आता है "श्री पुष्पषेणमुनिरेव पदं महिम्नो देवः स यस्य समभूत स महान् सधर्मा / श्रीविभ्रमस्य भवनं ननु पद्ममेव पुष्पेषु मित्रमिह यस्य सहस्रधामा // ". इस श्लोक में पुष्पषेणमुनि को अकलंक का सधर्मा अर्थात् गुरुभाई बतलाया है। संभवतः यह पुष्पषेण मुनि वही हैं जिन्हें, गद्यचिन्तामणि के प्रारम्भ में वादीभसिंह ने अपना गुरु बतलाया है। ___वादीभसिंह का यथार्थ नाम अजितसेन था। मल्लिषेणप्रशस्ति से ज्ञात होता है कि ये बहुत बड़े वादी और स्याद्वादविद्या के वेत्ताओं के अन्तरंग का अन्धकार दूर करने के लिये दूसरे सूर्य थे। अष्टसहस्री के टिप्पणकार लघुसमन्तभद्र अष्टसहस्री के मंगलश्लोक पर टिप्पण करते हुए लिखते हैं-"तदेवं महाभागैः तार्किकाकँरुपज्ञातां श्रीमता वादीभसिंहेन उपलालितामाप्तमीमांसामलञ्चिकीर्षवः ....... 'प्रतिज्ञाश्लोकमाहुः-श्रीवर्धमानमित्यादि / " इससे पता चलता है कि आप्तमीमांसा पर वादीभसिंह ने कोई टीका बनाई थी और वह टीका अष्टसहस्री से पहले बनी थी। अष्टसहस्री के अन्त में विद्यानन्द ने 'अत्र शास्त्रपरिसमाप्तौ केचिदिदं मङ्गलवचनमनुमन्यन्ते' लिखकर 'जयति जगति' आदि पद्य लिखा है और उसके बाद 'श्रीमदकलङ्कदेवाः पुनरिदं वदन्ति' लिखकर अकलंकदेव की अष्टशती का अन्तिम मंगलश्लोक दिया है, तत्पश्चात् 'वयं तु स्वभक्तिवशादेवं निवेदयामः' लिखकर अपना अन्तिम मंगल दिया है। 'केचित्' शब्द पर अष्टसहस्री की मुद्रित प्रति में एक टिप्पण भी है। जिसमें लिखा है कि-'केचित शब्द से आचार्य वसुनन्दि का ग्रहण करना चाहिए क्योंकि उन्होंने अपनी वृत्ति के अन्त में इस श्लोक को दिया है। पुनः लिखा है कि-'शास्त्रपरिसमाप्तौ मंगलवचनम्' इस वाक्य से तथा वसुनन्दि आचार्य के वचनों से यह श्लोक भी स्वामी समन्तभद्रकृत ही प्रतीत होता है, अतः स्वामी की बनाई हुई कारिकाओं की संख्या 115. है, किन्तु विद्यानन्द के मत से आप्तमीमांसा की कारिकाओं का प्रमाण 114 है।" पता नहीं यह टिप्पणी टिप्पणकार समन्तभद्र की ही है या संपादक ने अपनी ओर से लगा दी है ? हमें तो इसका पूर्व भाग संपादकजी की ही कृति प्रतीत होता है क्योंकि लधुसमन्तभद्र वसुनन्दि से पहले हो गये हैं, अतः वे ऐसा नहीं लिख सकते। तथा विद्यानन्द की लेखनपद्धति से ऐसा प्रतीत होता है कि 1 अष्टसहस्री पृ० 294, टिप्पण 3 /