________________ प्रस्तावना 113 विद्वान होने में कोई सन्देह शेष नहीं रह जाता। और उस दशा में उन्हें अकलंक का समकालीन मानने में कोई बाधा प्रतीत नहीं होती। ___ कुमारसेन और कुमारनन्दि-हरिवंशपुराण ( ई० 783 ) में कुमारसेन का स्मरण किया है। और विद्यानन्द अपनी अष्टसहस्री के अन्त में लिखते हैं कि कुमारसेन की उक्ति से उनकी अष्टसहस्री वर्धमान हुई है। कुमारनन्दि भट्टारक का उल्लेख भी विद्यानन्द के ग्रन्थों में ही दीख पड़ता है। उन्होंने अपनी प्रमाणपरीक्षा में 'तदुक्तं कुमारनन्दिभट्टारकैः' करके कुछ श्लोक उद्धृत किये हैं। इससे ये दोनों विद्वान ईसा की आठवीं शताब्दी के ग्रन्थकार प्रतीत होते हैं / अतः उन्हें अकलंक का समकालीन नहीं माना जा सकता। ___वीरसेन-जिनसेन के गुरु वीरसेन का स्मरण हरिवंशपुराण ( ई० 783 ) के कर्ता ने किया है। इन्होंने शक सं० 738 ( ई० 816 ) में धवलाटीका को समाप्त किया था / अतः ये भी अकलंक के समकालीन नहीं माने जा सकते / / ___परवादिमल्लदेव-मल्लिषेणप्रशस्ति में इन्हें बड़ा भारी वादी बतलाया है जैसा कि इनके नाम से व्यक्त होता है। तथा उक्त प्रशस्ति से ही यह भी ज्ञात होता है कि कृष्णराज के पूछने पर इन्होंने अपने नाम की निरुक्ति बतलाई थी। राष्ट्रकूट राजाओं में कृष्णराज नाम के एक प्रतापी राजा हो गये हैं, जिनकी उपाधि शुभतुंग थी और अकलंक को जिनका समकालीन कहा जाता था। यदि परवादिमल्लदेव इन्हीं कृष्णराज के समकालीन हैं तो अब वे भी अकलङ्कदेव के समकालीन नहीं हो सकते, क्यों कि कृष्णराज प्रथम के राज्यारोहण का काल ई० 760 के लगभग माना जाता है। श्रीपाल-आदिपुराण ( ई० 838 ) के कर्ता ने श्रीपाल नाम के एक विद्वान का स्मरण किया है। यह वीरसेनाचार्य के समकालीन थे। इन्होंने जयधवलाटीका का सम्पादन किया था। अतः इन्हें भी अकलंक की समकालीनता का लाभ नहीं हो सकता। - माणिक्यनन्दि-माणिक्यनन्दि तथा अकलंक के पारस्परिक सम्बन्ध की विवेचना पहले कर आये हैं और यह भी बतला आये हैं कि दिङ्नाग और धर्मकीर्ति का उनके परीक्षामुख सूत्र पर प्रभाव है। परीक्षामुख सूत्र के टीकाकार प्रभाचन्द्र और अनन्तवीर्य के सिवा किसी दूसरे ने इनका उल्लेख नहीं किया। अतः इन्हें अकलंक और प्रभाचन्द्र के मध्यकाल का विद्वान कहा जा सकता है / माणिक्यनन्दि और विद्यानन्द का एक दूसरे के ग्रन्थों पर कोई प्रभाव नहीं ज्ञात होता, अतः संभव है ये दोनों विद्वान समकालीन हों। और उस दशा में उन्हें अकलंक का समकालीन नहीं माना जा सकता। विद्यानन्द-विद्यानन्द ने अपने ग्रन्थों में धर्मोत्तर, प्रज्ञाकर तथा मण्डनमिश्र का उल्लेख किया है। तथा सुरेश्वराचार्य के वृहदारण्यकभाष्यवार्तिक से कारिकाएँ उद्धत की हैं। धर्मोत्तर और प्रज्ञाकर ईसा की आठवीं शताब्दी के विद्वान हैं, यह हम सिद्ध कर आये हैं। मण्डनमिश्र के समय के बारे में अनेक मत हैं, किन्तु इतना सुनिश्चित है कि वे कुमारिल के बाद के हैं। सुरेश्वराचार्य, शंकराचार्य के शिष्य थे। शंकर के समय के सम्बन्ध में अनेक मत हैं। उनमें से एक मत है कि शंकराचार्य का काल ई० 788 से 820 तक है। आजकल इसी मत की विशेष मान्यता है और ऐतिहासिक अनुशीलन से भी यही प्रमाणित होता है। इसी से पी'. वी. काने ( P. V. Kane) ने सुरेश्वर का कार्यकाल ई० 800 से 840 तक 1 देखो, तत्त्वबिन्दु की रामस्वामीशास्त्री लिखित अंग्रेजी प्रस्तावना /