________________ न्यायकुमुदचन्द्र "एतेनैव यत्किञ्चिदयुक्तमश्लीलमाकुलम् / प्रलपन्ति प्रतिक्षिप्तं तदप्येकान्तसंभवात् // 1-182 // ', इस कारिका में अनेकान्तवादियों के कथन को यत्किञ्चित् , अश्लील, आकुल और प्रलाप बतलाया है। उन्हीं शब्दों में उत्तर देते हुए अकलंक लिखते हैं "ज्ञात्वा विज्ञप्तिमात्रं परमपि च बहिर्भासिभावप्रवादम् , चक्रे लोकानुरोधात् पुनरपि सकलं नेति तत्त्वं प्रपेदे / न ज्ञाता तस्य तस्मिन् न च फलमपरं ज्ञायते नापि किञ्चित् , इत्यश्लीलं प्रमत्तः प्रलपति जडधीराकुलं व्याकुलाप्तः // 1-170 // " इसे ही कहते हैं जैसे को तैसा। धर्मकीर्ति पुनः लिखते हैं "सर्वस्योभयरूपत्वे तद्विशेषनिराकृतेः। चोदितो दधि खादति किमुष्टुं नाभिधावति // 1-183 // " अर्थात्-"यदि प्रत्येक वस्तु उभयात्मक है और किसी में कोई वैशिष्टय नहीं है तो दही खाने के लिये प्रेरित किया गया मनुष्य ऊँट की ओर क्यों नहीं लपकता है ?" धर्मकीर्ति के इस आक्षेप को अकलंक असत् उत्तर कहते हैं और इसी से पूर्वपक्ष अनेकान्त को बिना समझ बूझे धर्मकीर्ति ने जो परिहास किया है उसे 'जाति' का उदाहरण बतलाते हुए लिखते हैं "तत्र मिथ्योत्तरं जातियथानेकान्तविद्विषाम् / दध्युष्ट्रादेरभेदत्वप्रसंगादेकचोदनम् // 202 // पूर्वपक्षमविज्ञाय दूषकोऽपि विदूषकः / " पुनः कहते हैं " सुगतोऽपि मृगो जातो मृगोऽपि सुगतः स्मृतः / तथापि सुगतो वंद्यो मृगः खाद्यो यथेष्यते // 203 // तथा वस्तुबलादेव भेदाभेदव्यवस्थितेः / चोदितो दधि खादति किमुष्ट्रमभिधावति ? // 204 // " द्वि० प्र० धर्मकीर्ति लिखते हैं "प्रत्यक्षं कल्पनापोढं प्रत्यक्षेणैव सिद्धयति // 3-123 // " अकलंक कहते हैं “प्रत्यक्षं कल्पनापोढं प्रत्यक्षादिनिराकृतम् // 1-149 // " धर्मकीर्ति लिखते हैं “भेदानां बहुभेदानां तत्रैकास्मिन्नयोगतः // 1-91 // " भकलंक उत्तर देते हैं "भेदानां बहुभेदानां तत्रैकत्रापि संभवात् // 1-121 // "