________________ 68 न्यायकुमुदचन्द्र उसने तीन हो हेत्वाभास माने हैं-असिद्ध, विरुद्ध और अनैकान्तिक / किन्तु जैन केवल एक अन्यथानुपपत्ति को ही हेतु का रूप मानते हैं अतः उनका हेत्वाभास भी यथार्थ में एक ही है / किन्तु अन्यथानुपपत्ति का अभाव अनेक प्रकारों से देखा जाता है अतः हेत्वाभासे के भी असिद्ध, विरुद्ध, अनैकान्तिक और अकिञ्चित्कर भेद किये गये हैं। जो हेतु त्रिरूपात्मक होने पर भी अन्यथानुपपत्ति के अभाव से गमक नहीं हो सकते, उन सबको अकिश्चित्कर हेत्वाभास में गर्भित किया जाता है। किन्तु कोई कोई अकिञ्चित्कर को पृथक् हेत्वाभास नहीं मानते / __ जाति मिथ्या उत्तर को जाति कहते हैं, अर्थात् वाद के समय येन केनापि प्रकारेण प्रतिवादी को पराजित करने के लिये जो असत् उत्तर दिये जाते हैं उन्हें जाति कहते हैं। अकलंक ने अपने प्रकरणों में साधर्म्यसमा आदि जातियों का वर्णन नहीं किया और ऐसा करने में वे दो हेतु देते हैं -एक तो असत् उत्तरों का कोई अन्त नहीं है और दूसरा शास्त्रान्तर में उनका विस्तार से वर्णन किया गया है। जल्प या वाद तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक से पता चलता है कि आचार्य श्रीदत्त ने जल्पनिर्णय नाम से एक प्रन्थ की रचना की थी। इससे इस विषय को भी अकलंक की देन तो नहीं कहा जा सकता, किन्तु एक तो वह प्रन्थ अनुपलब्ध है और दूसरे, अकलंकदेव अपने समय के एक प्रबल वादी थे, तीसरे धर्मकीर्ति के वादन्याय की रचना के बाद उन्होंने इस सम्बन्ध में अपना मत प्रतिपादन किया था अतः उसमें बहुत कुछ मौलिकतत्त्व होने की संभावना है। न्यायदर्शन में कथा के तीन भेद किये हैं-वाद, जल्प और वितण्डा। न्यायसूत्रकार के मत से वीतराग कथा को वाद और विजिगीषुकथा को जल्प और वितण्डा कहते हैं। किन्तु अकलंकदेव जल्प और वाद में अन्तर न मानकर वाद को भी विजिगीषुकथा में ही सम्मिलित करते हैं। और वास्तव में लोकप्रसिद्धि से भी यही प्रमाणित है, क्योंकि गुरु-शिष्य की वीतरागकथा को कोई वाद नहीं कहता। दो वादियों के बीच में जब किसी बात को लेकर नियमानुसार पक्ष और प्रतिपक्ष की चर्चा छिड़ती है तभी वाद शब्द का प्रयोग किया जाता है। न्यायसूत्रकार ने. जल्प वितण्डा को विजिगीषुकथा मानकर, प्रतिपक्षी को पराजित करने के लिये छल जाति आदि असदुपायों का अवलम्बन करने का भी निर्देश किया है। किन्तु धर्मकीर्ति और अकलंक एक स्वर से इसका विरोध करते हैं। वाद को चतुरङ्ग कहा जात! 1 "अन्यथासंभवाभावभेदात् स बहुधा स्मृतः / विरुद्धासिद्धसंदिग्धैरकिश्चित्करविस्तरैः // " न्या० वि० 2.-196 / 2 "अन्यथानुपपन्नत्वरहिताः ये त्रिलक्षणाः / अकिञ्चित्कारकाः सर्वाः तान् वयं संगिरामहे // " न्या० वि० 2-201 / असदुत्तराणामानन्त्यात् शास्त्र वा विस्तरोक्तितः।। साधादिसमत्वेन जातिर्नेह प्रतन्यते // " न्या. वि. 2--206 // दिङ्नाग ने भी 'इस प्रकार के असदुत्तर अनन्त होते हैं। लिखकर जातियों का वर्णन करने में विशेष तत्परता नहीं दिखलाई। बुद्धिस्ट लॉजिक (चिरविट्स्की ) पृ० 342 / 4 पृ०२८०, का० 45 /