________________ 74 न्यायकुमुरचन्द्र उसकी क्रमिकसंख्या 1369 है / श्वेताम्बराचार्य वादिदेवसूरि ने भी पात्रस्वामी के नाम से, उक्त श्लोक उद्धृत किया है। यह श्लोक अकलंक के न्यायविनिश्चय के अनुमानप्रस्ताव नामक द्वितीय परिच्छेद में भी गर्भित है / न्यायविनिश्चय के टीकाकार वादिराजसूरि इस श्लोक की उत्थानिका में लिखते हैं "तदेवं पक्षधर्मत्वादिकमन्तरेणापि अन्यथानुपपत्तिबलेन हेतोर्गमकत्वं तत्र तत्र स्थाने प्रतिपाद्य भेदं ? स्वबुद्धिपरिकल्पितम् अपि तूपरागसिद्धम् इत्युपदर्शयितुकामः भगवत्सीमन्धरस्वामितीर्थकरदेवसमवसरणाद् गणधरदेवप्रसादापादितं देव्या पद्मावत्या यदानीय पात्रकेसरिस्वामिने समर्पितमन्यथानुपपत्तिवार्तिकं तदाह-" ____ अर्थात्-"भगवान् सीमन्धरस्वामी के समवशरण से, गणधर देव के प्रसाद से प्राप्त करके, पद्मावती देवी ने जो वार्तिक पात्रकेसरी स्वामी को समर्पित किया था, उसे कहते हैं।" अकलंक के ही दूसरे ग्रन्थ सिद्धिविनिश्चय की टीका में भी इस विषय की मनोरञ्जक चर्चा पाई जाती है। उक्त ग्रन्थ के हेतलक्षणसिद्धि' नामक छठवें प्रस्ताव का प्रारम्भ करते हुए अकलंकदेव ने लिखा है कि-"हेय-उपादेय के विवेक से शून्य मनुष्य स्वामी के अमलालीढ पद को नहीं समझ सकता" / रेखाङ्कित पदों की व्याख्या करते हुए टीकाकार अनन्तवीर्य लिखते हैं___ 'अमलालीढम्'–अमलैर्गणधर प्रभृतिभिरालीढमास्वादितं न हि ते सदोषमालिहन्ति अमलत्वहानेः / कस्य तदित्यत्राह-'स्वामिनः' पात्रकेसारणः इत्येके / कुत एतत्, तेन तद्विषयत्रिलक्षणकदर्थनमुत्तरभाष्यं यतः कृतमितिचेत्, नन्वेवं सीमन्धरभट्टारकस्याशेषार्थसाक्षात्कारिणस्तीर्थकरस्य स्यात् तेन हि प्रथम “अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् / नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् / " इत्येतत् कृतम् / कथमिदमवगम्यते ? इति चेत्, ‘पात्रकेसरिणा त्रिलक्षणकदर्थनं कृतम्' इति कथमवगम्यते इति समानम् / आचार्यप्रसिद्धः, इत्यपि समानम्, उभयत्र च कथा महती सुप्रसिद्धा तस्य तत्कृतत्वे प्रमाणप्रामाण्ये तत्प्रसिद्धौ कः समाश्वासः ? तदर्थ करणात् तस्य, इति चेत्, तर्हि सर्व शास्त्रं तदविधेय चात एव शिष्याणामेव न 'तत्कृतम्' इति व्यपदिश्येत / पात्रकेसरिणोऽपि वा न भवेत् तेनाप्यन्याथै तत्करणात्तेनाप्यन्यार्थम् इति न कस्यचित् स्यात् येन तद्विषयप्रबन्धकरणात् पात्रकेसरिणस्तत् इति चिन्तितं मूलसूत्रकारेण कस्यचिद् व्यपदेशाभावप्रसङ्गात् / तस्मात् साकल्येन साक्षात्कृत्योपदिशत एवायं भगवतः तीर्थकरस्य हेतुः, इति निश्चीयते / " ___इस लेख से ऐसा प्रतीत होता है कि 'पद' शब्द से टीकाकार ने 'अन्यथानुपपन्नत्वं' आदि पद का ग्रहण किया है और उसके विशेषण 'अमलालीढ' पद का अर्थ 'गणधरों के द्वारा आस्वादित' किया है / तथा 'स्वामिनः' शब्द के अर्थ के बारे में उत्तर-प्रत्युत्तर करते हुए लिखा है"स्वामी शब्द से कोई कोई पात्रकेसरी का ग्रहण करते हैं। उनका कहना है कि पात्रकेसरी ने 'त्रिलक्षणकदर्थन' नाम के उत्तरभाष्य की रचना की थी और यह हेतुलक्षण उसी ग्रन्थ का है / 1 स्याद्वादरत्नाकर पृ० 521 / 2 न्या. वि. वि. पृ० 500 पू० /