________________ प्रस्तावना भाष्यकार और अकलंक-श्वेताम्बर सूत्रपाठ के ऊपर एक भाष्यग्रन्थ भी है जो स्वोपज्ञ कहा जाता है। किन्तु कुछ इतिहासज्ञ विद्वानों को इसमें विवाद है और उसे वे बाद की रचना समझते हैं। अकलंक के वार्तिकग्रन्थ से प्रतीत होता है कि अकलंकदेव के सन्मुख उक्त भाष्य उपस्थित था। कई स्थलों पर उन्होंने उसके मन्तव्यों की आलोचना की है और कहीं कहीं अनुसरण सा भी किया प्रतीत होता है। उदाहरण के लिये, 'अणवः' स्कन्धाश्च' सूत्र की व्याख्या में भाष्यकार ने 'कारणमेव तदन्त्यः' आदि पद्य उद्धृत किया है। अकलंकदेव ने उसकी आलोचना की है। तथा 'नित्यावस्थितान्यरूपाणि' सूत्र की व्याख्या में 'वृत्ती पञ्चत्ववचनात् षड्द्रव्योपदेशव्याघातः' वार्तिक का व्याख्यान करते हुए लिखा है-"वृत्ती उक्तम्-अवस्थितानि धर्मादीनि न हि कदाचित पञ्चत्वं व्यभिचरन्ति / " यह वाक्य भाष्य में इस प्रकार है-“अवस्थितानि च, न हि कदाचित् पञ्चत्वं भूतार्थत्वं च व्यभिचरन्ति / " इससे ऐसा प्रतीत होता है कि वृत्ति शब्द से अकलंक ने भाष्य का निर्देश किया है। प्रथम अध्याय के 'एकादीनि' आदि सूत्र की व्याख्या में भाष्यकार ने किसी आचार्य के मत का उल्लेख 'केचित्' करके किया है, जो केवलज्ञान की दशा में भी मति आदि ज्ञानों का अस्तित्व स्वीकार करते हैं। अकलंकदेव ने इस मत का खण्डन किया है। 'दग्धे बीजे यथात्यन्तं ' आदि एक श्लोक भी उद्धृत किया है जो भाष्य में पाया जाता है। तथा ग्रन्थ के अन्त में भी 'उक्तं च' करके कुछ श्लोक दिये हैं जो भाष्य में मिलते हैं। इसके सिवा भाष्य में सूत्ररूप से कही गई कई पंक्तियों का विस्तृत व्याख्यान राजवार्तिक में पाया जाता है। यथा, 'शुभं विशुद्धमव्याघाति' आदि सूत्र के भाष्य में शरीरों में संज्ञा, लक्षण आदि से भेद बतलाया है। अकलंकदेव ने उसका विवेचन दो पृष्ठों में किया है / तथा 'सम्यग्दर्शन' आदि सूत्र की व्याख्या में भाष्यकार ने 'पूर्वस्य लाभे भजनीयमुत्तरम् , उत्तरलाभे तु नियतः पूर्वलाभः' लिखा है। अकलंकदेव ने इन्हें वार्तिक बनाकर उनका आशय स्पष्ट किया है। कहा जा सकता है कि वार्तिकग्रन्थ से भाष्यकार ने इन्हें ले लिया होगा। किन्तु पूर्वोक्त अन्य सब बातों के साथ इसकी समीक्षा करने पर यही प्रतीत होता है कि अकलंकदेव के सन्मुख उक्त भाष्यग्रन्थ उपस्थित था और उन्होंने उसके कुछ मन्तव्यों की आलोचना और कुछ का आदान करके अपनी न्याय्यबुद्धि का ही परिचय दिया है। . समन्तभद्र और अकलंक-स्याद्वाद और सप्तभंगीवाद के प्रतिष्ठाता समन्तभद्र के प्रकरणों का अकलंकदेव पर बड़ा गहरा प्रभाव है। उनके 'आप्तमीमांसा' नामक प्रकरण पर उन्होंने अष्टशती भाष्य की रचना की थी। आप्तमीमांसा में प्रत्येक तत्त्व को अनेकान्त की तुला में तोला गया है। उसी का अनुसरण हम अकलंकदेव के राजवार्तिक में पाते हैं। क्योंकि राजवार्तिक में अनेकान्त के आधार पर तत्त्वस्थितिविषयक प्रायः प्रत्येक प्रश्न को हल करने का प्रयत्न अकलंक ने किया है। समन्तभद्र ने प्रमाण को 'स्याद्वादनयसंस्कृत' बतलाकर श्रुतज्ञान 1 भाष्य पृ० 116 और राजवातिक पृ० 236 / 2 राजवा० पृ० 197 / 3 पृ. 107 / 4 राजवा. पृ० 361 / यह श्लोक तथा कुछ अन्त के श्लोक अमृतचन्द्र सूरि के तत्त्वार्थसार में भी पाये जाते हैं। जो ज्यों के त्यों मूल में सम्मिलित कर लिये गये हैं। किन्तु ये श्लोक तत्त्वार्थसार के नहीं हैं क्योंकि अमृतचन्द्र - अकलंक के कई सौ वर्ष बाद हुए हैं। 5 राजवा० पृ० 108-109 / 6 राजवा० पृ० 12 / 7 "तत्त्वज्ञानं प्रमाणं ते युगपत् सर्वभासनम् / क्रमभावि च यज्ज्ञानं स्याद्वादनयसंस्कृतम् // 1.1 // " आ०मी०।