________________ न्यायकुमुदचन्द्र तथा लिखा है कि सीतम्बूर तिन्दीवनम् के मठ में 'अकलंकवाद' नामक एक ग्रन्थ है, किन्तु इन ग्रन्थों को देखे बिना इनके सम्बन्ध में कुछ कहा नहीं जा सकता। इस विस्तृत चर्चा के आधार पर, वर्तमान में, केवल तत्वार्थराजवार्तिक, अष्टशती, लघीयस्त्रय (सविवति), न्यायविनिश्चय ( सविवति ), सिद्धिविनिश्चय ( सविवति ) और प्रमाणसंग्रह, ये 6 ग्रन्थ ही अकलंकदेवरचित प्रमाणित होते हैं। संभव है कुछ अन्य ग्रन्थ भी उन्होंने रचे हों और वे यदि मूषकों के आक्रमण से बचे हों तो किसी भण्डाररूपी कारागार में अपने जीवन की शेष घड़ियाँ गिनते हों, किन्तु अकलंकदेव के विरुद की सत्यता प्रमाणित करने के लिये उक्त ग्रन्थरत्न ही पर्याप्त हैं। उनके अनुशीलन से प्रत्येक विद्वान् इस निर्णय पर पहुंचता है कि उनका रचयिता एक प्रौढ़ विद्वान् और उच्चकोटि का ग्रन्थकार था। अकलंक का व्यक्तित्व (उनके साहित्य के आधार पर) किसी ने कहा है और ठीक कहा है कि साहित्य कवि के मनोभावों का न केवल मूर्तिमान प्रतिबिम्ब है किन्तु उसकी सजीव आत्मा है / कवि जो कुछ विचारता है और जो कुछ करता है उसकी प्रतिध्वनि उसके साहित्य में सर्वदा गूंजती रहती है। अतः कवि के व्यक्तित्व का प्रामाणिक परिचय उसके साहित्य से मिलता है। - यद्यपि अकलंकदेव का साहित्य तर्कबहुल और विचारप्रधान है, उसका बहुभाग इतर दर्शनों की समीक्षा से ओतप्रोत है, तथापि किसी किसी स्थल पर कुछ ऐसी बातें पाई जाती हैं जिनके आधार पर हम उनके व्यक्तित्व को समझने का प्रयत्न कर सकते हैं। - अकलंक के प्रकरणों के अवलोकन करने से ऐसा प्रतीत होता है कि वे अल्पभाषी और सतत विचारक थे, और ज्यों ज्यों वे वयस्क होते गये उनके ये गुण भी अधिक अधिक विकसित होते गये। उन्होंने जो कुछ लिखा बहुत थोड़े शब्दों में लिखा और खूब मनन कर लेने के बाद लिखा / इसी से उनकी रचना गहन और चिन्तनीय है, खोजने पर भी उसमें एक भी शब्द व्यर्थ नहीं मिल सकता। किन्तु वे शुष्क दार्शनिक नहीं थे, बल्कि बड़े विनोदी और परिहासकुशल व्यक्ति थे। उनके गहन साहित्यकानन में विचरण करते करते जब पाठक कुछ क्लान्ति सी अनुभव करने लगता है, तब दार्शनिक परिहास की पुट उसकी क्लान्ति को दूर करके पुनः उसके मस्तिष्क को तरोताजा बना देती है। जिस समय अकलङ्कदेव ने कार्यक्षेत्र में पदार्पण किया था वह समय बौद्धयुग का मध्याह्नकाल था। भारत के दार्शनिक धार्मिक राजनैतिक और साहित्यिक आकाश में, सर्वत्र उसकी प्रखरकिरणों का साम्राज्य था, उसके प्रताप से इतर दार्शनिक त्रस्त थे। इसी से अकलंक के साहित्य में बुद्ध और उसके मन्तव्यों की आलोचना बहुतायत से पाई जाती है और उनके परिहास का लक्ष्य भी वही है। मध्यकालीन खण्डनमण्डनात्मक साहित्य के देखने से पता चलता है कि उस समय इतर दर्शनों की आलोचना करते करते आलोचक मर्यादा का अतिक्रमण कर जाते थे, और अपने विपक्षी को पशु तक कह डालने में संकोच न करते थे, किन्तु सदाशय अकलंक के व्यङ्ग-विनोद में हमें उस कटुता के दर्शन नहीं होते। कहीं कहीं वे 'देवानांप्रिय' जैसे शब्दों का प्रयोग श्लेषरूप में करते हैं और कहीं कहीं बौद्ध दार्शनिकों के द्वारा जैनों के