________________ न्यायकुमुदचन्द्र सिद्धि विनिश्चय-कच्छेदेश के 'कोडाय' ग्राम के श्वेताम्बर ज्ञानभण्डार से 'सिद्धिविनिश्वयटीका' की उपलब्धि हुई थी। वहां से यह ग्रन्थ अहमदाबाद लाया गया और गुजरात पुरातत्त्वमन्दिर में उसकी कापी कराई गई। इस टीका में मूल भाग बहुत ही कम है / मूल के केवल आद्य अक्षरों का ही उल्लेख करके टीका लिखी गई है / इसमें मूल का उल्लेख दो प्रकार से पाया जाता है, एक तो 'अत्राह' करके कारिकारूप से और दूसरे 'कारिका व्याख्यातुमाह' करके कारिका के व्याख्यारूप से। इससे पता चलता है कि यह टीका सिद्धिविनिश्चयमूल और उसकी स्वोपज्ञविवृति को लेकर बनाई गई है। विद्यानन्द की अष्टसहस्री और प्रभाचन्द्र के न्यायकुमुदचन्द्र में उनका मूल अन्तर्निहित है और प्रयत्न करने पर उनमें से पूरा पूरा पृथक किया जा सकता है किन्तु सिद्धिविनिश्चयटीका में यह बात नहीं है जैसा कि हम लिख आये हैं। कहीं कहीं तो 'कारिकायाः सुगमत्वात् व्याख्यानमकृत्वा' लिखकर कारिका की कारिका ही छोड़ दी गई है / टीकाके प्रारम्भिक श्लोकों में एक श्लोक निम्न प्रकार है . देवस्यानन्तवीर्योऽपि पदं व्यक्तुं तु सर्वतः। न जानीतेऽकलङ्कस्य चित्रमतेद् परं भुवि // इससे पता चलता है कि मूल ग्रन्थ अकलङ्कदेव का ही बनाया हुआ है। तथा तदाह अकलङ्कः सिद्धिविनिश्चये' लिखकर वादिदेवसूरि ने स्याद्वादरत्नाकर में एक वाक्य उद्धत किया है, उससे भी उक्त बात का समर्थन होता है / अकलङ्क के अन्य प्रकरणों की तरह इसमें भी नमस्कार के बाद एक पद्य आता है जिसमें कण्टकशुद्धिपूर्वक ग्रन्थ का नामनिर्देश किया है। इसका विनिश्चयान्त नाम भी धर्मकीर्ति के प्रमाणविनिश्चय का स्मरण कराता है। इसमें 12 प्रस्ताव हैं, प्रत्येक प्रस्ताव में एक एक विषय की सिद्धि की गई है। संक्षिप्त परिचय निम्नप्रकार है'- 1 प्रत्यक्षसिद्धि-में प्रत्यक्ष प्रमाण की सिद्धि है। इसमें मुख्यतः धर्मकीर्तिकृत प्रत्यक्ष के लक्षण का तथा सूचनरूप से सन्निकर्ष का खण्डन करके “इदं स्पष्टं, स्वार्थसन्निधानान्वयव्यतिरेकानुविधायि प्रतिसंख्यानिरोध्यविसंवादकं प्रत्यक्षं प्रमाणं युक्तम्" प्रत्यक्ष का यह लक्षण स्थापित किया है। मुख्यतया बौद्ध का खण्डन होने से तत्सम्मत प्रत्यक्षग्राह्य क्षणिकपरमाणुरूप स्वलक्षण अर्थ का निरास करके स्थिर स्थूलरूप अर्थ की भी सिद्धि की गई है। 2 सविकल्पकसिद्धि-में प्रत्यक्ष के अवग्रहादि चार भेदों में प्रमाणफलभाव बताकर सभी ज्ञानों को सविकल्पक सिद्ध किया है / प्रसंगतः "बुद्धिपूर्वा क्रियां दृष्ट्वा स्वदेहेऽन्यत्र तद्ग्रहात् / ज्ञायते बुद्धिरन्यत्र अभ्रान्तैः पुरुषैः क्वचित् / " इस कारिका में धर्मकीर्तिकृत सन्तानान्तरसिद्धि में बताई गई युक्ति को क्षणिकैकान्त में असंभव बताकर अनेकान्तवाद में उसे संभव बताया है। . 3 प्रमाणान्तरसिद्धि-में स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम को पृथक् प्रामाण्य सिद्धकरके चार्वाकादि की प्रमाणसंख्या का विघटन किया है। बौद्ध की सत्त्वहेतु की व्याप्ति का खण्डन करके अर्थक्रियाकारित्व को नित्यैकान्त तथा क्षणिकैकान्त में असंभव बतलाया है और उत्पादादित्रयात्मक अर्थ की विस्तार से सिद्धि की है। - 4 जीवसिद्धि में द्रव्यपर्यायात्मक वस्तु को प्रमाण का विषय बतलाकर, ज्ञानक्षणों के सर्वथा क्षणिकत्व का निरास करते हुए उनमें अन्वितरूप से रहने वाले जीवतत्त्व की विस्तार से ........1 इस प्रन्थ की उपलब्धि का इतिहास जानने के लिये देखो-अनेकान्त, वर्ष 1, पृ० 136 /