Book Title: Nav Padarth
Author(s): Shreechand Rampuriya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 19
________________ (गा० ५६); योग जीव कैसे ? (गा० ५७); योग आस्रव कैसे ? (गा०५८); सर्व कार्य आस्रव (गा० ५६); कर्म, आस्रव और जीव (गा० ६०-६१); मिथ्यात्वी को आस्रव की पहचान नहीं होती (गा० ६२); मोहकर्म के उदय से होनेवाले सावद्य कार्य योग आस्रव हैं (६३-६५); मिथ्यात्व का कारण दर्शन मोहनीयकर्म (गा० ६६): आस्रव अरूपी है (गा० ६७); अशुभ लेश्या के परिणाम रूपी नहीं हो सकते (गा० ६८); मोहकर्म के संयोग-वियोग से कर्म उज्ज्वल-मलीन (गा० ६६); योग सत्य (गा० ७०); योग आस्रव अरूपी है (गा० ७१-७३); रचना-स्थान और काल (गा० ७४)। टिप्पणियाँ [१. आस्रव पदार्थ और उसका स्वभाव पृ० ३६८, २. आस्रव शुभ अशुभ परिणामानुसार पुण्य अथवा पाप का द्वार है पृ० ३७०; ३. आस्रव जीव है पृ० ३७१; ५. आस्रवों की संख्या पृ० ३७२; ६. आस्रवों का परिभाषा पृ० ३७३: ७. आस्रव और संवर का सामान्य स्वरूप पृ० ३८६; ८. आस्रव कर्मों का कर्ता, हेतु उपाय है पृ० ३८७; ६. प्रतिक्रमण विषयक प्रश्न और आस्रव पृ० ३८७; १०. प्रत्याख्यान विषयक प्रश्न और आस्रव पृ० ३८८; ११. तालाब का दृष्टान्त और आस्रव पृ० ३८८; १२. मृगापुत्र और आस्रव-निरोध पृ० ३८६; १३. पिहितास्रव के पाप का बन्ध नहीं होता पृ० ३८६; १४. पंचास्रव संवृत भिक्षु महा अनगार पृ० ३६०; १५. मुक्ति के पहले योगों का निरोध पृ० ३६०; १६. प्रश्नव्याकरण और आस्रवद्वार पृ० ३६१; १७. आस्रव और प्रतिक्रमण पृ० ३६२; १८. आस्रव और नौका का दृष्टान्त पृ० ३६३; १६. आस्रव विषयक कुछ अन्य संदर्भ पृ० ३३४; २०. आस्रव जीव या अजीव पृ० ३६६; २१. आस्रव जीव परिणाम है अतः जीव है पृ० ४०१; २२. जीव अपने परिणामों से कर्मों का कर्ता है अतः जीव-परिणाम स्वरूप आस्रव जीव है पृ० ४०१; २३. आचाराङ्ग में अपनी ही क्रियाओं से जीव कर्मों का कर्ता कहा गया है पृ० ४०४; २४. योगास्रव जीव कहा गया है पृ० ४०५, २५. भावलेश्या आस्रव है, जीव है अतः सर्व आस्रव जीव हैं पृ० ४०६; २६-मिथ्यात्वादि जीव के उदय निष्पन्न भाव हैं पृ० ४०६, २७. योग, लेश्यादि जीव परिणाम है अतः योगास्रव आदि जीव हैं पृ० ४०७; २८. आस्रव जीव-अजीव दोनों परिणाम नहीं पृ० ४०७; २६. मिथ्यात्व आस्रव पृ० ४०६; ३०. आस्रव और अविरति अशुभ लेश्या के परिणाम पृ० ४०६; ३१. जीव के लक्षण अजीव नहीं हो सकते पृ० ४१०; ३२. संज्ञाएँ अरूपी हैं अतः आस्रव अरूपी है पृ० ४१०; ३३. अध्यवसाय आस्रव रूप है पृ०

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