Book Title: Nandanvan Kalpataru 2005 00 SrNo 15
Author(s): Kirtitrai
Publisher: Jain Granth Prakashan Samiti
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जीविष्यामि किन्न तथापि
डॉ. अभिराजराजेन्द्रमिश्रः
न लपेन्मया सह कोऽपि जीविष्यामि किन्न तथापि अहमेव वा न लपानि, जीविष्यामि किन्न तथापि ॥१॥
अश्रुतकथितवेपथुकथोऽथ च निर्निदाघोऽहम् तुहिनाचलो यद्यरिम, जीविष्यामि किन्न तथापि ॥२॥ कोकिलरवैरथ वञ्चितं शाखोटकछुरितम् यद्यरिम मरुवणमेव, जीविष्यामि किन्न तथापि ॥३॥ निस्तारकं व्योमाऽथवाऽस्ततरङ्गकोऽप्युदधिः वनमेव निस्तरु हन्त, जीविष्यामि किन्न तथापि ॥४॥
सुखदुःखयुग्मसमञ्चितं यदि भूतलं सकलम् तत्राऽस्मि जातः कोऽपि, जीविष्यामि किन्न तथापि ॥५॥
धात्रा धरित्र्यां निर्गुणं सृष्टं न किञ्चिदहो यद्यस्मि बर्बुर एव, जीविष्यामि किन्न तथापि ॥६॥
एकान्तमपि रमयेत्क्वचित् कोलाहलोद्विग्नान् यदि शून्यमेव भवामि, जीविष्यामि किन्न तथापि ॥७॥
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