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णमोकार महामंत्र : एक अनुशीलन
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सिद्ध भगवान तो मुक्त ही हैं तथा अरहन्त, आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधु मुक्तिमार्ग के पथिक हैं तथा सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र – इन तीनों की एकता मुक्तिमार्ग है। मुक्तिदशा, मुक्तिमार्ग के पथिकरूप साधकदशा तथा मुक्तिमार्ग रूप साधनदशा सभी आत्मा की ही अवस्थाएँ हैं । ये सभी अवस्थाएँ निजभगवान आत्मा के आश्रय से ही उत्पन्न होती हैं। इसलिए निजभगवान आत्मा की शरण में जाना ही सुखी होने का एकमात्र उपाय है।
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पंचपरमेष्ठी हमारे लिए परमपूज्य हैं, प्रातः स्मरणीय हैं, वन्दनीय हैं, अभिनन्दनीय हैं और सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र साक्षात् मुक्ति का मार्ग हैं। हमें परमेष्ठी पद में स्थित होना है और सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्ररूप रत्नत्रय की आराधना ही पंच परमेष्ठी पद में स्थित होना है। इसप्रकार हमारे जीवन में पंचपरमेष्ठी एवं रत्नत्रय का महत्त्वपूर्ण स्थान है। पर ये पंचपरमेष्ठी पद और रत्नत्रय धर्म सभी आत्मा की ही अवस्थाएँ हैं । इन्हें प्राप्त करने के लिए निज भगवान आत्मा का ज्ञान, श्रद्धान और ध्यान आवश्यक है। अतः यहाँ आत्मा की ही शरण में जाने की बात कही गई है।
यहाँ एक प्रश्न सम्भव है कि शरण में जाने की बात तो दो द्रव्यों के बीच में ही सम्भव है, स्वयं का स्वयं की शरण में जाना किसप्रकार सम्भव है ? अरे भाई ! निज भगवान आत्मा को जानना, पहिचानना और उसमें जमना - रमना ही आत्मा की शरण में जाना है। त्रिकालीध्रुव निज भगवान आत्मा को जानना और यह जानना कि 'यही मैं हँ' निज भगवान आत्मा की सम्यग्ज्ञानरूप उपासना है, निज भगवान आत्मा की शरण में जाना है; तथा उसी त्रिकालीध्रुव निज भगवान आत्मा में अपनापन स्थापित करना, 'ये ही मैं हूँ' - ऐसी दृढ़ प्रतीति करना ही आत्मा की सम्यग्दर्शनरूप उपासना है, निज भगवान आत्मा की शरण में जाना है; त्रिकालीध्रुव निज भगवान आत्मा में लीन हो जाना, रम जाना, जम जाना, समा जाना, उसी का ध्यान करना, निज भगवान आत्मा की सम्यक्चारित्र रूप उपासना है, निज भगवान आत्मा की शरण में जाना है।