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णमोकार महामंत्र : एक अनुशीलन
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यदि कौओं के कोसने से पशु मरने लग जावें तो जगत में एक भी पशु का बचना सम्भव नहीं है; क्योंकि लोक में कोसने वाले कौओं की कमी नहीं है।
आशीर्वाद के सन्दर्भ में भी यही बात है। प्रत्येक माँ अपने प्रत्येक बालक को अत्यंत पवित्र हृदय से भरपूर आशीर्वाद देती है, पर एक ही माँ का एक बालक विश्वविद्यालय में सर्वोच्च स्थान प्राप्त करता है और दूसरा अनुत्तीर्ण हो जाता है। एक जिलाधीश बन जाता है और दूसरे को चपरासी बनना पड़ता है। यदि माँ के आशीर्वाद से कुछ होता हो तो दोनों बालकों को एक-सा फल प्राप्त होना चाहिए, पर ऐसा देखने में नहीं आता । सच्ची बात तो यह है कि यदि आशीर्वाद से कुछ होने की बात होती तो किसी का भी कुछ भी अनिष्ट होने की सम्भावना ही समाप्त हो जाती; क्योंकि प्रत्येक माँ अपने प्रत्येक बेटे को भरपूर आशीर्वाद देती ही है।
इससे यही प्रतिफलित होता है कि प्रत्येक व्यक्ति के सुख-दुःख व जीवनमरण उसके स्वयं के कर्मानुसार ही होते हैं।
'जैसा करोगे, वैसा भरोगे' की सूक्ति को सार्थक करने वाला आचार्य कुन्दकुन्द का यह कथन लोगों को अपने आचरण सुधारने की भी पावन प्रेरणा देता है। श्रद्धा ही आचरण को दिशा प्रदान करती है। जबतक हमारी श्रद्धा ही सम्यक् न होगी, तबतक आचरण भी सम्यक् होना सम्भव नहीं है।
जबतक छात्रों की श्रद्धा यह रहेगी कि पढ़ने से क्या होता है, विश्वविद्यालय में सर्वोच्च स्थान तो प्राध्यापकों की कृपा से ही प्राप्त होता है; तबतक छात्रों का मन पढ़ने में कैसे लगेगा ? वे तो प्राध्यापकों को प्रसन्न करने के लिए उनके घरों के ही चक्कर काटेंगे।
जबतक कोई लिपिक यह मानता रहेगा कि काम करने से क्या होता है. पदोन्नति तो अधिकारियों के प्रसन्न होने पर ही होगी; तबतक उसका मन काम करने में कैसे लगेगा, वह तो अधिकारियों की सेवा में ही संलग्न रहेगा।
जबतक व्यापारी यह समझते रहेंगे कि ईमानदारी से आजतक कोई करोड़पति नहीं बना, करोड़पति बनने के लिए तो ऊँचा - नीचा करना ही पड़ता