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मैं स्वयं भगवान हूँ
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उसे यह स्वीकार नहीं कि कोई दीन-हीन जन भगवान बन जावे । अपने आराध्य को दीन-हीन दशा में देखना भी हमें अच्छा नहीं लगता ।
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भाई, भगवान भी दो तरह के होते हैं- एक तो वे अरहंत और सिद्ध परमात्मा, जिनकी मूर्तियाँ मन्दिरों में विराजमान हैं और उन मूर्तियों के माध्यम से हम उन मूर्तिमान परमात्मा की उपासना करते हैं, पूजन- भक्ति करते हैं; जिस पथ पर वे चले, उस पथ पर चलने का संकल्प करते हैं. भावना भाते हैं। ये अरहंत और सिद्ध कार्यपरमात्मा कहलाते हैं ।
दूसरे, देहदेवल में विराजमान निज भगवान आत्मा भी परमात्मा है, भगवान है; इसे कारणपरमात्मा कहा जाता है ।
जो भगवान मूर्तियों के रूप में मन्दिरों में विराजमान हैं; वे हमारे पूज्य हैं, परमपूज्य हैं; अतः हम उनकी पूजा करते हैं, भक्ति करते हैं, गुणानुवाद करते हैं; किन्तु देहदेवल में विराजमान निज भगवान आत्मा श्रद्धेय है, ध्येय है, परमज्ञेय है; अतः निज भगवान को जानना, पहिचानना और उसका ध्यान करना ही उसकी आराधना है ।
सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र की उत्पत्ति इस निज भगवान आत्मा के आश्रय से ही होती है; क्योंकि निश्चय से निज भगवान आत्मा को निज जानना ही सम्यग्ज्ञान है, उसे ही निज मानना, 'यही मैं हूँ' - ऐसी प्रतीति होना सम्यग्दर्शन है और उसका ही ध्यान करना, उसी में जम जाना, रम जाना, लीन हो जाना सम्यक्चारित्र है ।
अष्टद्रव्य से पूजन मन्दिर में विराजमान ' पर - भगवान' की की जाती है और ध्यान शरीररूपी मन्दिर में विराजमान 'निज - भगवान' आत्मा का किया जाता है । यदि कोई व्यक्ति निज- आत्मा को भगवान मानकर मन्दिर में विराजमान भगवान के समान स्वयं की भी अष्टद्रव्य पूजन करने लगे तो उसे व्यवहार- विहीन ही माना जायेगा; वह व्यवहारकुशल नहीं, अपितु व्यवहारमूढ़ ही है ।
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